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जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ... 283
नंद्यावर्त्त को विभिन्न आकारों में बनाया जाता है यद्यपि उसका बीच का आकार वही रहता है तथा इसकी Line कहीं भी टूटती या किसी अन्य कोने से जुड़ती नहीं है । चारों किनारे अलग ही रहते हैं। इसका प्रचलन मात्र जैन धर्म में ही है। इसे मंगल एवं कल्याण का सूचक भी माना जाता है। प्रतिष्ठा आदि महोत्सवों में नंद्यावर्त्त महापूजन करवाया जाता है जो इसकी महत्ता एवं वैशिष्ट्य का सूचक है।
वृद्धि का प्रेरक वर्धमानक
अष्ट मंगल में चौथे स्थान पर वर्धमानक है। इसे वर्धमान भी कहा जाता है। यह सम्पुटाकार होता है। एक सीधे रखे हुए शराव या सिकोरे पर उल्टा सिकोरा रखने से वर्धमानक का चिह्न निर्मित होता है। इसे दीपक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। मंदिर के प्राचीन उपकरणों में वर्धमानक का नाम प्राप्त होता है। यह परमात्मा के आत्मज्ञान रूपी उजाले एवं अज्ञान तिमिर के विनाश का सूचक है।
दीपक को प्रकाश, उन्नति, समर्पण एवं अंधकार विनाश का प्रतीक माना है । वर्धमान का अर्थ है बढ़ते रहना अतः यह मंगल चिह्न अध्यात्म में उन्नति का सूचक है और इसीलिए वर्धमानक को मंगल रूप मानकर अष्टमंगल में सम्मिलित किया गया है।
पूर्णता का मंगल उद्बोधक मंगल कलश
पत्र-पुष्पों से अलंकृत एवं जल से भरा हुआ घड़ा कलश कहलाता है। इसे पूर्ण कुंभ, भद्रकलश, पूर्ण कलश आदि भी कहा जाता है। पूर्वकाल से लेकर आज तक इसे सर्वोत्तम मंगल का प्रतीक माना गया है।
यह चिह्न आध्यात्मिक समृद्धि, ज्ञान सम्पूर्णता एवं सद्गुण सम्पन्नता का सूचक है। इसका मुख अखण्डता, सतह भाग नए स्वरूप को धारण करने एवं कंठ भाग पुराने स्वरूप को त्याग करने का सूचक है। कलश के आस-पास में दो आँखें सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की सूचक हैं। बौद्ध, वैदिक एवं जैन इन तीनों परम्परा में इसे अष्टमंगल में से एक मंगल के रूप में स्वीकार किया गया है। किसी भी मंगल कार्य का प्रारंभ, गृह प्रवेश, नवीन प्रतिष्ठान की स्थापना आदि के अवसर पर सर्वप्रथम कलश की स्थापना की जाती है। जल से भरे हु कलश को मंगल का सूचक माना गया है। आम्रपल्लव लगाने से यह पूर्णहार