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256... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
समयानुसार या परिस्थिति अनुसार परिवर्तन हर काल में आते हैं किन्तु परिवर्तन का अभिप्राय यह तो नहीं कि हम मूल सिद्धान्तों में ही परिवर्तन कर दें। त्रिकाल पूजा जिनके लिए संभव नहीं है, वे मध्याह्न काल की अपेक्षा प्रात: काल में अष्टप्रकारी पूजा सम्पन्न करें, वहाँ तक मान्य हो सकता है परन्तु अपनी सुविधा अनुसार उनमें मनचाहा परिवर्तन ग्राह्य नहीं है। परिवर्तन का अधिकार मात्र गीतार्थ गुरुओं को दिया गया है श्रावक वर्ग को नहीं।
वर्तमान में लोग त्रिकाल पूजा के मूल प्रयोजन आदि से अनभिज्ञ होने के कारण भी इसे उपेक्षित कर जाते हैं तो कई लोग लापरवाहीवश इसे विस्मृत कर जाते हैं। कहा जाता है कि जहाँ चाह हो वहाँ राह मिल ही जाती है। मुसलमान व्यक्ति चाहे जहाँ हो वह पाँचों समय की नमाज अदा करता ही है। चाहे ऑफिस हो चाहे स्कूल, नमाज पढ़कर ही वह आगे बढ़ता है, क्योंकि उसे अपनी धर्मक्रियाओं के प्रति श्रद्धा एवं आस्था है। रमजान में छोटे-छोटे बच्चे भी महीना भर रोजा रखते हैं और हम संवत्सरी का एक उपवास करने में भी कतराते हैं। क्योंकि हमें परमात्म वाणी के प्रति वह श्रद्धा ही नहीं है। मुम्बई जैसे महानगरों में जहाँ हर क्षेत्र में जिनमंदिर है वहाँ कोई भी व्यक्ति चाहें तो अपने ऑफिस आदि से आते-जाते समय या Off Time में मंदिर जाकर आ सकता है, पूजा आदि भी कर सकता है बशर्ते परमात्मा के प्रति उतना बहुमान होना चाहिए।
हम यह कह सकते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में त्रिकाल पूजा करना मुश्किल है, परन्तु असंभव नहीं। श्रावक को परिस्थिति अनुसार अपने समय का नियोजन कर जिनपूजा अवश्य करनी चाहिए। कम्प्यूटर की भाँति अधिक जिनबिम्बों की फट-फट पूजा करने की अपेक्षा एक ही जिनबिम्ब की अच्छे से भावपूर्वक पूजा करना श्रेयस्कर है। यदि प्रात:काल में जल्दी जाना हो तो प्रक्षाल का आग्रह न रखते हुए वासक्षेप पूजा के द्वारा संतोष कर लेना चाहिए। सूर्योदय से पूर्व प्रक्षाल आदि करना कर्मनाश की अपेक्षा कर्म बंधन का कारण बनता है। __जिस प्रकार हम बच्चों के School, Meeting party आदि में जाने हेतु उचित समय निकाल लेते हैं वैसे ही परमात्म दर्शन को भी आवश्यक कार्य समझें तो निश्चित रूप से त्रिकाल-दर्शन हेतु भी समय का नियोजन कर सकते हैं।
कदाच भौतिक उत्थान के अनुरागी लोगों को यह क्रिया निष्प्रयोजन, दुष्कर