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जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...253
रूप में द्रव्य पूजा तथा चैत्यवंदन के द्वारा भावपूजा की जाती है । विविध द्रव्यों को अर्पण करने से उनके प्रति आसक्ति न्यून होती है तथा तद्गुणों का चिंतन करने से व्यक्ति में उन गुणों का आविर्भाव होता है । संध्याकालीन पूजा में आरती की महत्ता
श्रावक की दैनिक चर्या के अंतिम पड़ाव में सायंकालीन प्रतिक्रमण से पूर्व संध्याकालीन पूजा का उल्लेख है। जैनाचार्यों का कहना है कि जो श्रावक एकाशन आदि करने में सक्षम नहीं हों उन्हें कम से कम सूर्यास्त से दो घड़ी (48 minutes) पूर्व तो भोजन - पानी आदि का त्याग कर ही देना चाहिए। अपने दिनभर की सुखद पूर्णता का धन्यवाद देने, दिन में सेवित पापों की आलोचना एवं प्रायश्चित्त करने तथा संध्याकालीन प्रत्याख्यान हेतु श्रावक को पुनः परमात्मा की शरण में पहुँचकर अपने आपको निर्मल एवं शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
सूर्यास्त का समय निकट होने से संध्याकाल में परमात्मा की अंगपूजा अर्थात जलपूजा आदि करना संभव नहीं है क्योंकि उस समय भी प्रकाश की अल्पता होती है। इसी कारण श्रावक के लिए बार- बार देहशुद्धि भी उचित नहीं है । व्यवहार जगत में संध्या का समय आरती, मंत्रोच्चार आदि का माना जाता है। घरों में भी इस समय दीपक प्रकटाकर रोशनी की जाती है। संध्यापूजन एवं आरती दोनों को सहचर माना गया है।
आरती को “आरात्रिक" भी कहा जाता है। इसका अर्थ है रात्रि के प्रारंभ या संध्या समय में सम्पन्न की जाने वाली प्रक्रिया आरात्रिक है और इसी का प्रवर्तित शब्द रूप आरती है। संध्या के समय अंधेरे के कारण जिनबिम्ब के स्पष्ट दर्शन करना संभव नहीं होता। इस कारण दीपक के माध्यम से श्रावक सम्पूर्ण प्रतिमा का दर्शन करता है। परमात्मा की राज्य अवस्था दर्शाने हेतु यदि जिनबिम्ब की अंगरचना की गई हो तो लोक व्यवहार के अनुसार परमात्मा को नजर न लगे इस हेतु कई परम्पराओं में आरती की जाती है।
संध्या के समय आरती, वाद्ययंत्र, मंत्र आदि का मंगलनाद वातावरण में एक अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करता है। इससे दिन भर की थकान दूर हो जाती है। इससे श्रावक संध्या सम्बन्धी आराधना में अधिक मनोयोगपूर्वक जुड़ सकता है। परमात्मा के समक्ष आरती करने से दुःख, पाप एवं कर्मों का नाश होता है ।