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200... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
हेतु पुजारी का सहयोग लेने से हमें देवद्रव्य भक्षण का दोष लगता है तथा कर्मचारी वर्ग के मन में भी हमारी छवि धूमिल होती है। जीव मात्र के प्रति संवेदना का संदेश देने वाले परमात्मा के दरबार में उनके सेवकों के प्रति हमारा अमानवीय व्यवहार कैसे उचित हो सकता है ?
मंदिर में हम परमात्मा के सेवक बनकर जाते हैं। उस दरबार में मालिक के समान व्यवहार करना श्रावकाचार के प्रति अजागरूकता और लापरवाही का सूचन है। इससे हृदय में रहे प्रेम, करुणा, सौहार्द, मैत्री आदि के भाव क्षीण होते हैं और शिथिलता बढ़ती है । यदि इस संबंध में सावधानी बरती जाए तो मंदिर में कदाच किसी प्रकार की अव्यवस्था भी होगी तो हमें क्रोध नहीं आएगा, नौकरों पर हुक्म चलाने की बात मन में ही नहीं आएगी। अन्यथा प्रत्येक कार्य के लिए उन पर मोहताज रहना पड़ता है । यदि पुजारी ने अंगलुंछन नहीं किया है या केसर घोटकर तैयार नहीं किया है तो हम दस मिनट इधर-उधर घूमकर उसका इंतजार करते हैं, परन्तु स्वयं उस कार्य को करने की चेष्टा नहीं करते। इससे परमात्मा के प्रति श्रद्धा में कभी पूर्णता नहीं आती। मन्दिरों में अव्यवस्था एवं चोरी आदि की अवांछित घटनाएँ भी इसी कारण बढ़ रही हैं। अतः मन्दिर कर्मचारियों के साथ हमारा व्यवहार भद्रतापूर्ण एवं सम्मानजनक होना चाहिए। इससे कर्मचारी वर्ग के मन में परमात्मा एवं परमात्म भक्तों के प्रति अनुराग तो बढ़ेगा ही। इसी के साथ जैन धर्म एवं जैन धर्म अनुयायियों की अच्छी एवं नैतिक छवि भी समाज के अन्य वर्ग के समक्ष बनेगी।
पदाधिकारियों द्वारा रखने योग्य विवेक
हमारे पूर्वजों ने मंदिरों को सुव्यवस्थित एवं संरक्षित रखने की अपेक्षा से मन्दिरों को शुद्ध सार्वजनिक संपत्ति माना, जिससे प्रत्येक श्रावक उसे अपना समझकर उसका लाभ उठा सके तथा उसकी व्यवस्था एवं सुरक्षा में सहायक बन सकें। करोड़ों का खर्च कर मंदिर निर्माण करने वालों का भी उस पर कोई आधिपत्य नहीं रहता। चाहे मंदिर की व्यवस्था संभालने वाले पदाधिकारी हों या मंदिर की व्यवस्था में अर्थ सहयोगी दान-दाता सभी को अपने आप को भाग्यशाली मानकर परमात्म भक्ति के महान लाभ को अर्जित करना चाहिए।
वर्तमान समाज व्यवस्था में पदाधिकारी मंदिरों पर अपना एकाधिकार समझते हैं तथा सामान्य जनता मंदिर व्यवस्था को मुखिया वर्ग का कर्तव्य