________________
मन्दिर जाने से पहले सावधान ...199 तो क्या? परमात्मा को द्रव्य तो अर्पित हो ही रहा है। हर जगह एक ही सिद्धान्त लागू नहीं होता। __परिस्थिति सापेक्ष विवेक पूर्वक निर्णय लेना आवश्यक है। नियम के प्रति कटिबद्धता तो होनी चाहिए परन्तु हठवादिता नहीं। पर्व दिनों में जब मंदिरों में बहत भीड़ होती है। और कई नए लोग एवं युवा वर्ग भी उस समय पूजा करने आते हैं तब रोज नहीं आने वालों को पहले पूजा करने का मौका देना चाहिए।
कई स्थानों पर देखा जाता है कि नित्य प्रक्षाल आदि के समय उपस्थित रहने वाले लोगों का प्रथम पूजा को लेकर आग्रह होता है और यदि कोई उनसे पहले आकर पूजा कर ले तो कुछ लोग लड़ाई भी करने लग जाते हैं।
पूजा करने का मुख्य हेतु आत्म परिणामों की निर्मलता, परमात्मा का गुणगान, वीतरागता का अंगीकरण आदि है। अत: पूजा के निमित्त द्वेष, अहंकार या मान कषाय का वर्धन अनुचित तथा अनुपयुक्त है। पूजार्थी एवं दर्शनार्थी वर्ग को अत्यन्त विवेक पूर्वक परमात्म भक्ति करनी चाहिए जिससे उनकी भक्ति किसी अन्य के लिए कर्म बंधन का कारण न बने। कर्मचारी वर्ग से कैसा व्यवहार करें? __वर्तमान समय में मंदिरों के अधिकतर कार्य पूजारी, मैनेजर आदि कर्मचारी वर्ग के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। मंदिर सम्बन्धी प्रत्येक कार्य व्यवस्था श्रावक वर्ग की जिम्मेदारी होती है, परन्तु आज श्रावकों में मंदिरों के प्रति इतनी सजगता एवं कार्यनिष्ठा नहीवत ही देखी जाती है। व्यवस्था का लाभ उठाते समय तो लोग मन्दिर पर अपनी सम्पत्ति के समान अधिकार समझते हैं किन्तु कर्तव्य पालन सिर्फ ट्रस्टियों का जिम्मा समझा जाता है। आज इसी बढ़ती शिथिलता के कारण हम नौकरों के अधीनस्थ हो गए हैं। मंदिर में जाते ही कर्मचारी वर्ग पर प्रत्येक व्यक्ति अपना रौब जमाना शुरू कर देता है। ___ “यह नहीं किया" "वह नहीं हआ", "अमुक वस्तु कहाँ है?" आदि। कई लोग तो पुजारी आदि पर इस तरह अधिकार जमाते हैं कि मानो वे उनके पर्सनल नौकर हों। वे जब पूजा करने पहुंचे तो पुजारी उनके लिए सामान लेकर तैयार रहना चाहिए। कई लोग तो मंदिर के पुजारी से अपने घर की सब्जी लाने आदि के कार्य भी करवाते हैं। ध्यान रहे कि पुजारी मंदिर का कर्मचारी है और उसके खर्च का वहन भी मंदिर खाते से ही किया जाता है। अत: व्यक्तिगत कार्य