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भावे भावना भाविए ...185 के बाद उस व्यक्ति का व्यक्तित्व या तो समाप्त हो जाता है या चमक जाता है। वर्तमान जीवित व्यक्ति के प्रति हमारे सद्भाव हों या न हों परन्तु सौ वर्ष पहले हए व्यक्ति के प्रति हमारे सद्भाव अवश्य रहते हैं। उस महापुरुष का उज्ज्वल जीवन आदर्श के रूप में हमारे सामने होने से परमात्म भक्ति में भी उच्च भाव जुड़ते हैं।
प्राचीन स्तवन रागबद्ध और तालबद्ध होते हैं। उनमें आज के भौतिक भावों का गुंफन नहीं होता। कहते हैं 'पुरुष विश्वासे वचन विश्वास' इस उक्ति के अनुसार व्यक्ति के प्रति विश्वास जम जाने से उसके वचन पर भी अनायास ही विश्वास जम जाता है। प्राचीन आचार्यों के प्रति सहज में सद्भाव बन जाते हैं।
अत: उनके द्वारा निर्मित स्तवन में भी सहज रूप से भाव जुड़ जाते हैं। प्राचीन रचनाओं की शब्द संरचना आदि भी उत्तम होती है। इसी कारण सौ वर्ष से अधिक प्राचीन स्तवन गाने का विधान है ताकि रचयिता से सम्बन्धित किसी प्रकार के दुर्भाव उत्पन्न न हों और परमात्म भक्ति में हमारी तल्लीनता बनी रहे।
आजकल प्रायः देखा जाता है कि पुराने स्तवन नये रागों में गाए जाते हैं जिससे कई बार स्तवन के मूल भावों के विपरीत भाव उन रागों से अभिव्यक्त होते हैं। स्तवन के उदात्त एवं उदार भावों के स्थान पर फिल्मी धुन के चलचित्र हमारे समक्ष उभरने लगते हैं। इसके उपरान्त कोई भी अक्षर अलग-अलग उच्चरित होने के कारण शब्दार्थ भी दुरूह बन जाता है। अत: पुराने स्तवनों में नए रागों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कदाच कोई राग अत्यंत दुरूह एवं अज्ञात हो तो नए राग में उसको जमाते हुए उसके भाव, शब्दोच्चारण आदि का पूर्ण ध्यान रखकर ही उसमें परिवर्तन करना चाहिए।
वर्तमान प्रचलित नए फिल्मी गानों पर भजन रचना न करने का एक मुख्य कारण यह भी है कि नए गानों पर बनी हुई रचना सुनते समय मन पूर्ण रूप से स्तवन के भावों से नहीं जुड़ पाता, गाने में रहे हुए शब्द एवं भावों की स्मृति बार-बार मानस पटल पर आती रहती है। अत: कामोत्तेजक एवं अर्थहीन गानों के सुर मन को शांत एवं भक्तिमय बनाने की अपेक्षा अधिक अशांत एवं दुर्भाव युक्त बनाते हैं। कर्म निर्जरा एवं भावनात्मक उत्थान में ऐसे स्तवन हेतुभूत नहीं बन सकते। ऐसे ही कई कारणों की वजह से जैनाचार्यों ने स्तवन के प्रति कुछ मर्यादाएँ नियुक्त की हैं जिनका पालन करने से परमात्मा का सम्यक रूप से