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अमृत नाद
पूजा, अध्यात्म उपासना का विशिष्ट चरण है। विविधताओं से परिपूर्ण भारतीय परम्परा की कोई भी शाखा हो वहाँ इष्ट देव की आराधना - साधना हेतु किसी न किसी प्रकार की उपासना पद्धति का वर्णन है। परमात्मा के प्रति यही सत्कार एवं सम्मान की भावना पूजा कहलाती है।
जैन परम्परा में जिन पूजा का महत्त्व आगम काल से परिलक्षित होता है। जैनाचार्यों ने अपने चिंतन बल एवं जिनवाणी के आधार पर इसकी महिमा का कीर्तिमान अनेकशः स्थानों पर किया है। विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में इसके भिन्न-भिन्न उद्देश्य हैं परंतु सभी का केन्द्र बिन्दु एक मात्र परमोच्च सुख या आत्मानन्द की प्राप्ति है। जिनपूजा के द्वारा व्यक्ति स्वयं में रहना सीख जाता है।
कवि सम्राट् आचार्य कवीन्द्रसागर सूरीश्वरजी म. सा. कहते हैं
प्रभु पुजा करो प्रभु पूजा करो, आया विघन मिट जाएगा । जिनपूजा का एक नाम ही विघ्न विनाशिनी है। जिनेश्वर परमात्मा को कल्पतरू, कामघट या कामधेनु से भी अधिक प्रभावी माना है क्योंकि यह इच्छापूर्ति नहीं अपितु इच्छा समाप्ति या इच्छा विजय का मार्ग बताते हैं । जिन पूजन-दर्शन आदि का मुख्य लक्ष्य जीव को प्रतिपल स्वयं के सच्चे स्वरूप की प्रतीति करवाना है। जिनेश्वर परमात्मा जीवन को एक लक्ष्य प्रदान करते हैं। पूज्यतम पुरुषों की आराधना करने से व्यक्ति को नैतिकता एवं सदाचार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
सामान्यतः व्यक्ति को जिस क्षेत्र में अग्रसर होना हो वह उस क्षेत्र के शिखरस्थ व्यक्तियों को अपना लक्ष्य बनाता है । तद्रूप या उनसे भी अधिक ऊँचाईयों को प्राप्त करने का स्वप्न देखता है। वीतराग परमात्मा भी सन्मार्गगामी पथिकों के लिए आदर्श पुरुष हैं। जिनपूजा के माध्यम से व्यक्ति को अपने आदर्श का प्रतिपल स्मरण बना रहता है।
विदुषी साध्वी सौम्यगुणाजी अध्ययननिष्ठ होने के साथ-साथ क्रियानिष्ठ एवं भक्तिनिष्ठ भी है। इसलिए आगमोक्त रहस्यों को प्रकट करने में आंतरिक