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________________ अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ...169 पुनः जन्म-मरण की पीड़ा दे रहा है उसे आप ही अपने ज्ञान के द्वारा दूर भगा सकते हैं। सम्यग्ज्ञान की ताकत से ही मोहरूपी सर्प का विनाश किया जा सकता है। हे शुद्धात्मन्! जिस प्रकार दीपक जलकर शांत हो जाता है वैसे ही मेरी आत्मा में भड़क रही कषायों की अग्नि भी इस दीपक की तरह शांत हो जाए। हे स्वामिन् ! इस भव में ऊपर से नीचे और यहाँ से वहाँ घूमता-टकराता भटकता रहा हूँ। मेरा यह भटकना जल्दी समाप्त हो जाए और मैं स्थिर स्वरूप को प्राप्त करूं। हे त्रिलोकीनाथ! मंगल दीपक के द्वारा मैं स्व-मंगल एवं विश्व-मंगल की भावना करता हूँ। आप विश्वकल्याण के सुंदर भावों से अनुप्राणित होकर सर्वत्र अपना ज्ञान प्रकाश फैलाते हैं। उसी तरह यह मंगल दीपक श्रेष्ठ परमाणुओं को सम्पूर्ण वातावरण में प्रसरित करता है। इसके साथ होता घंटनाद, शंखनाद आदि के द्वारा चैतसिक अशुद्ध परमाणुओं का विलय होता है। हे जगत दिवाकर! आप मेरे कल्याण पथ को प्रकाशित करते हुए मुझे मुक्ति महल तक पहुंचाएं। अष्ट प्रकारी पूजा श्रावक का दैनिक कर्तव्य है। यह मोक्ष साधक क्रिया तभी सार्थक बन सकती है जब उसमें कर्ता का आंतरिक जुड़ाव हो। मतलबी या स्वार्थी संसार से अपने Connection को Cut करके परमात्मा से connect होने का जिनपूजा एक अभूतपूर्व अभियान है। यह परमात्मा से Online होने के लिए net connection के समान है। इस connection को बस सही विधि एवं रीति से जोड़ना जरूरी है। . इस अध्याय के माध्यम से अष्टप्रकारी पूजा के विविध पहलुओं का अध्ययन करते हुए उसके विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत किया गया है जिससे पूजार्थी वर्ग अपने आपको सम्पूर्ण रूप से एवं शुद्ध मार्ग से प्रभु भक्ति में जोड़ पाएं तथा उसके उत्तम फल को प्राप्त कर पाएं क्योंकि कहा गया है प्रभु दर्शन सुख संपदा, प्रभु दर्शन नव निध । प्रभु दर्शन थी पामिये, सकल पदारथ सिद्ध।। यह अध्याय सर्वार्थ सिद्धि में सहायक बने यही अभ्यर्थना।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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