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168... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
दीक्षा लेने से पूर्व आपने एक वर्ष तक वर्षीदान देकर अपनी संपदा के सदुपयोग का मार्ग बताया। अनेक प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि-समृद्धि आपके चरणों में आलोडन करती थी किन्तु आपने कभी उनका राग या अभिमान नहीं किया। किन्तु धन्य है आपकी इस वीतरागता को।
हे निस्पृही! भोग सामग्री का उपभोग करते हुए आपके मन में कभी उसके प्रति आसक्ति भाव या राग भाव उत्पन्न नहीं हुए। दीक्षा लेते समय चक्रवर्ती सदृश वेश भूषा में सुसज्जित होने पर भी आपके मन में वैराग्य की उर्मियां लहरें बनकर हिलोरें ले रही थीं। दीक्षा के बाद देवों द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र भी आपने ब्राह्मण को दे दिया।
हे लोक-लोकेश्वर! अरिहंत अवस्था में प्रातिहार्य एवं अतिशयों से शोभित होने पर भी आप सर्व परिग्रह के त्यागी थे। आपके मन में कभी भी उन वस्तुओं के प्रति राग भाव उत्पन्न नहीं हुआ। आप जलकमलवत सदा ही निर्लिप्त रहे।
हे त्रिलोकवंद्य! बाह्य पदार्थों की मोह और आसक्ति को कम करने के लिए तथा मूर्छा भाव को समाप्त करने के लिए मैं आपको यह वस्त्र समर्पित करता हूँ। आपके अनुग्रह से ही मुझमें अनासक्त भाव जागृत रह सकते हैं।
हे देवाधिदेव! आपने समस्त राग एवं आसक्ति का क्षय कर सिद्ध पद को प्राप्त किया है। मैं भी आपको वस्त्र अर्पित करते हुए यही भावना करता हूँ कि मेरी संसार बुद्धि को आप क्षीण करें एवं आत्मशुद्धि को उत्पन्न करें। आरती और मंगल दीपक से पाएं मुक्ति की मंजिल
आरती और मंगलदीप उतारते समय श्रावक को निम्न भाव करने चाहिए
हे दुख भंजन! सांसारिक दुख का हरण करने हेतु आपकी आरती उतारी जाती है। हे देवाधिदेव! मैं भी आपकी आरती उतारकर इस भव जंजाल से मुक्त होना चाहता हूँ।
हे निर्विकारी! आप पाँच दिव्य ज्ञानों से सुशोभित हैं। इसी हेतु पाँच दीपक वाली आरती से आपकी आरती उतारी जाती है।
हे दयासिन्धु! सर्प का दंश जीवन को समाप्त कर देता है परन्तु अग्नि के भय से सर्प पीछे हट जाता है। इसी तरह मोहनीय कर्म रूपी सर्प जो मुझे पुनः