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... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
क्रम से बच्चों को आगे की क्लास में बढ़ाया जाता है । अनुमान कीजिए कि वो क्रम न हो। कोई बच्चा पहले पाँचवीं कक्षा में पढ़े फिर उसे दूसरी कक्षा में भेजा जाए और फिर चौथी में तो वह सम्यक प्रकार से कुछ भी नहीं सीख पाएगा। वैसे ही यदि मन मर्जी से पूजा के क्रम में परिवर्तन करते रहें तो मनोयोग पूर्वक किसी एक से भी नहीं जुड़ पाएंगे। अतः क्रम एवं विधिपूर्वक समस्त क्रियाएँ करनी चाहिए।
अक्षत पूजा हेतु अक्षतों को व्यवस्थित डिब्बी या मन्दिर Bag में रखने चाहिए। मिश्री, नैवेद्य आदि को चावलों के साथ नहीं रखना चाहिए। कई बार उनका चूर्ण चावलों में मिश्रित होकर जीवोत्पत्ति में कारणभूत बनता है। दसपन्द्रह दिन के अंतराल में उसकी सफाई अवश्य करनी चाहिए। मुखकोश को चावलों के साथ नहीं रखना चाहिए ।
यदि सामूहिक पूजा कर रहे हों तो सभी के चावल एक थाली में इकट्ठा कर गहुँली आदि बनानी चाहिए।
अक्षत पूजा करते समय चावलों को सर्वप्रथम दाहिने हाथ में ग्रहण कर बायीं हथेली को दायीं हथेली के नीचे तिरछी रखें। कुछ आचार्यों के अनुसार पुरुषों को दायीं एवं महिलाओं को बायीं हथेली में चावल रखने चाहिए। मंत्रोच्चार पूर्वक शिखर मुद्रा में चावल चढ़ाने चाहिए । सर्वप्रथम सिद्धशिला की ढेरी, फिर दर्शन, ज्ञान, चारित्र की ढेरी और अंत में स्वस्तिक की ढेरी बनाएँ । इसका उलटा क्रम भी देखा जाता है।
सर्वप्रथम तर्जनी अंगुली से स्वस्तिक और फिर सिद्धशिला बनाई जाती है। शंका - प्रश्न हो सकता है कि अक्षत पूजा में स्वस्तिक और सिद्धशिला ही क्यों बनाए जाते हैं ?
समाधान - अक्षत पूजा के माध्यम से जीव अपनी वर्तमान दशा एवं भविष्य के लिए आंतरिक इच्छा को अभिव्यक्त करता है । स्वस्तिक, चार गति का सूचक है। इन चार गतियों के भ्रमण से मुक्ति पाने हेतु जीव रत्नत्रय रूप सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चारित्र की आराधना से शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर सिद्धशिला को प्राप्त कर सकता है। इसी के प्रतीक रूप में स्वस्तिक और सिद्धशिला बनाए जाते हैं।