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अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ...129 लिखा है कि धूप पूजा एक अग्र पूजा है। अत: इसे मूल गर्भगृह के बाहर करनी चाहिए। कई लोग धूपशलाका को परमात्मा के पास ले जाकर धूप पूजा करते हैं, यह एक गलत प्रवृत्ति है एवं आशातना का कारण है। भगवान की नासिका के पास ले जाकर भी धूप पूजा नहीं करनी चाहिए। सम्यक रीति से धूप पूजा करने हेतु रंगमंडप में परमात्मा की बायीं तरफ खड़े रहकर धूप पूजा करना चाहिए। इससे संपूर्ण मन्दिर सुवासित होता है।
धूप पूजा करने हेतु धूपशलाका को हाथ में इस प्रकार ग्रहण करें कि दोनों हाथों की अंगुलियाँ एक-दूसरे के सामने मिल जाएं। इसके बाद तर्जनी और मध्यमा के बीच जो अवकाश रहता है वहाँ पर धूपशलाका को अच्छे से पकड़ लें। धूपशलाका खड़ी रहे इस प्रकार परमात्मा के समक्ष धूप लेकर खड़े रहें। यदि धूपदानी में रखकर धूप करते हैं तो उसे भी दोनों हाथों से ही पकड़ना चाहिए। धूप को गोल-गोल घुमाने का विधान कहीं भी शास्त्रों में उल्लेखित नहीं है। धूपपूजा विषयक जन मान्यता
• कई लोग यह सोचते हैं कि धूप पूजा के द्वारा वातावरण को परमात्मा के लिए सुगन्धित बनाया जाता है और इसी कारण वे मूल गर्भगृह में भी धूप लेकर पहुंच जाते हैं। जिनेश्वर परमात्मा तो अच्छे-बुरे के भाव से मुक्त होते हैं। उनका वीर्य इतना विकसित है कि उन्हें गंध लेने के लिए नासिका की आवश्यकता ही नहीं रहती। धूप पूजा तो हम स्वयं को निर्मल संवर भावों से सुगन्धित करने हेतु करते हैं। ___• कुछ लोग यह मानते हैं कि नया धूप जलाकर ही धूप पूजा करनी चाहिए। इसी कारण धूप जल रहा हो तो भी वे नया धूप जलाते हैं। मन्दिर में रखे हुए धूप का इस प्रकार अनावश्यक प्रयोग नहीं करना चाहिए। स्व द्रव्य से पूजा करने वाले धूप-दीप आदि नया प्रकट कर सकते हैं।
शंका- कुछ लोग शंका करते हैं कि परमात्मा जब राग-द्वेष रहित एवं सर्वत्र हैं तो फिर उनके समक्ष धूप आदि से पूजा करने की क्या आवश्यकता?
समाधान- परमात्मा को न पूजा से फर्क पड़ता है न निंदा से। चाहे कोई उनकी पूजा करे या कोई उन्हें तिरस्कृत उनके लिए सभी समान है। यथार्थतः परमात्मा की पूजा परमात्मा के लिए नहीं स्वयं के लिए की जाती है।
जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त है “अप्पा सो परमप्पा"- आत्मा ही परमात्मा