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जिनपूजा एक क्रमिक एवं वैज्ञानिक अनुष्ठान स्थान ... 65
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सूत्रोच्चारण मधुरता, त्रियोग की शुद्धि एवं एकाग्रतापूर्वक अर्थ चिंतन करते हुए करना चाहिए साथ ही परमात्मा के प्रति अहोभाव लाना चाहिए। 9. मुद्रा त्रिक
मुद्रा अर्थात अभिनय, एक्शन या शरीर की अवस्था विशेष। जैनाचार्यों ने विविध सूत्रों के साथ विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का गुम्फन किया है। चैत्यवंदन क्रिया करते हुए तीन विशिष्ट मुद्राओं का उल्लेख किया गया है। उन मुद्राओं को धारण करने से हमारे मन एवं शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। ये मुद्राएँ विनय, नम्रता, स्थिरता, वीरता आदि भावों की सूचक है एवं उन्हीं भावों का जागरण भी करती हैं। वे तीन मुद्राएँ निम्नोक्त हैं- 1. योग मुद्रा 2. मुक्ताशुक्ति मुद्रा एवं 3. जिनमुद्रा । ये तीनों मुद्राएँ प्रशस्त मानी गई हैं। 16
1. योग मुद्रा - यह एक हस्त मुद्रा है। दोनों हाथों की दसों अंगुलियों को हल्के से एक दूसरे में ग्रथित कर हथेलियों को अविकसित कमल की तरह बनाते हुए दोनों कोहनियों को पेट पर रखने से योगमुद्रा बनती है। जं किंचि, चैत्यवंदन, नमुत्थुणं, स्तवन, अरिहंत चेइयाणं आदि पाँच दंडक सूत्र इस मुद्रा में ही बोले जाते हैं।
2. मुक्ताशुक्ति मुद्रा - यह भी एक हस्त मुद्रा है । मुक्ता अर्थात मोती और शुक्ति यानी सीप। सीप के आकार जैसी हस्त मुद्रा मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहलाती है। दोनों हाथों को जोड़कर अंगुलियों के ऊपरी पोरवों को आपस में मिलाते हुए हथेली के मध्यभाग को खोखला या पोला रखना मुक्ताशुक्ति मुद्रा है। इस मुद्रा में हाथों को ललाट या भौहों के बीच रखा जाता हैं । जावंति चेइयाई, जावंत केवि साहु एवं जयवीयराय सूत्र मुक्ताशुक्ति मुद्रा में बोले जाते हैं।
3. जिन मुद्रा - यह पाँव और हाथ की मुद्रा है। तीर्थंकर परमात्मा (जिन) जिस मुद्रा में कायोत्सर्ग हेतु खड़े रहते हैं वह जिनमुद्रा कहलाती है। इस मुद्रा में सीधे खड़े होकर दोनों पैरों के बीच आगे की तरफ चार अंगुल एवं पीछे एड़ियों में चार अंगुल से कम का अन्तर रखते हुए दोनों हाथों को नीचे की ओर सीधा लटकता हुआ रखा जाता है। दोनों हथेलियाँ जंघा की तरफ रहती है। इस प्रकार जिनमुद्रा बनती है। कायोत्सर्ग के समय जिनमुद्रा धारण की जाती है। खड़े रहकर बोले जाने वाले सूत्रों में पैरों की जिनमुद्रा एवं हाथों की योग मुद्रा होती है। मुद्रा प्रयोग के द्वारा शरीरस्थ चक्र, ग्रन्थि, तत्त्व आदि को नियंत्रित रखा