________________
जिनपूजा - एक क्रमिक एवं वैज्ञानिक अनुष्ठान स्थान ... 41
सूर्यास्त के समय मन्दिर मंगल कर देना चाहिए।
यदि हम पूजा विधिक्रम का आद्यन्त अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि इसमें अनेक प्रकार की मर्यादाओं एवं उपमर्यादाओं का पालन किया जाता है। जब छोटी-छोटी मर्यादाएँ मिलकर एक विराट रूप लेती हैं तो वही हमारे लक्ष्य के रूप में संसिद्धि बन जाती है। विविध चरणों के रूप से निबद्ध ये आवश्यक क्रियाएँ मात्र पूजन विधि के चरण नहीं अपितु मुक्ति महल तक पहुँचाने के सोपान हैं। जो आवश्यकता एवं महत्ता प्रथम सोपान की होती है वही अन्तिम की भी क्योंकि एक सोपान की भी अनुपस्थिति गति में बाधक बन जाती है । जैनाचार्यों ने जिनपूजन-दर्शन का जो सुनियोजित विधिक्रम बतलाया है उसकी जानकारी एवं परिपालना प्रभु भक्ति के समय त्रियोग एकीकरण में सहायक बनती है।
घर से लेकर मन्दिर तक पालन करने योग्य विविध मर्यादाओं की मुख्य विधियाँ निम्न हैं
1. सात शुद्धियाँ 2. पाँच अभिगम और 3. दस त्रिक।
आत्म शुद्धि के सोपान रूप सात शुद्धियाँ
परमात्मा के दर्शन हेतु जाने से पूर्व सात प्रकार की शुद्धि का पालन करना आवश्यक माना गया है। ये शुद्धियाँ मन, वचन, काया तीनों की शुद्धि करते हुए पूजार्थी को पूजा के योग्य बनाती है । शरीर आदि शुद्ध होने पर मन आदि की तल्लीनता भी बढ़ती है। इसी कारण जैन शास्त्रकारों ने पूजार्थी के लिए सर्वप्रथम इन सात प्रकार की शुद्धियों का निरूपण किया है जो निम्न हैं- 1. अंग शुद्धि 2. वस्त्र शुद्धि 3. मन शुद्धि 4. भूमि शुद्धि 5. उपकरण शुद्धि 6. द्रव्यशुद्धि और 7. विधि शुद्धि |
1. अंग शुद्धि - परमात्मा का दर्शन-पूजन करने से पूर्व जणापूर्वक कम से कम पानी में शास्त्रोक्त रीति से स्नान करना अंग शुद्धि है। मानव शरीर मलमूत्र, श्लेष्म, पसीना आदि अनेक कारणों से प्रति समय अशुद्ध होता रहता है। वहीं परमात्मा की प्रतिमा जो कि पवित्र पदार्थों से निर्मित है तथा अंजनशलाका, प्रतिष्ठा आदि मंत्रयुत विधानों से गुजरने के कारण विशिष्ट परमाणुओं से युक्त हो चुकी है, उसे स्पर्श करने के लिए दैहिक शुद्धता परमावश्यक है। इसी कारण शरीर से जब पीव आदि रिसती हो या शरीर में किसी प्रकार की अशुद्धि हो तो