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________________ हर्षनाद जैन साधना में प्रतिक्रमण आराधना का महत्त्व प्रत्येक तीर्थंकर के समय में विद्यमान रहा है। कभी यह नित्य कल्प रहा तो कभी ऐच्छिक जो कि आत्म परिणामों के आधार पर निश्चित किया जाता था। मुनि एवं गृहस्थ जीवन की यह एक नित्य दैनिक क्रिया है, जो साबुन की भाँति मलिन आत्मा के शुद्धिकरण का कार्य करती है। भौतिक चकाचौंध युक्त इस कलिकाल में प्रतिक्रमण अलकनंदा भागीरथी के समान आत्मा का विशुद्धिकरण कर उसे पाप मुक्त निर्मल बनाती है तथा पश्चात्ताप रूपी अग्नि में तपाकर आत्मा को सौ टंच सोना बनाती है। इसलिए हमारे यहाँ प्रतिक्रमण की क्रिया को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए आवश्यक की संज्ञा दी गई है। पूर्वधर आचार्यों ने प्रतिक्रमण विधि - रहस्यों के बारे में बहुत कुछ लिखा है और आज भी इस सम्बन्ध में लिखा जा रहा है किन्तु साध्वी सौम्यगुणाजी ने पाश्चात्य संस्कारों से प्रभावित आबाल - युवा वर्ग के मनोगत संशयों एवं प्रश्नों का सचोट निवारण करते हुए इसे नवीनता एवं समग्रता प्रदान की है । साध्वीजी ने इस शोध कृति में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर की वर्तमान प्रचलित प्रतिक्रमण विधियों को भी उल्लेखित किया है और उनमें छिपे तथ्यों का स्पष्टीकरण, प्रत्येक सूत्र के भावार्थ, उनके अभिप्राय, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आदि को भी स्पष्ट किया है। इसी के साथ वर्तमान जीवन शैली में इस क्रिया की उपादेयता, प्रबंधन आदि के क्षेत्र में उपयोगिता तथा वैयक्तिक एवं वैश्विक स्तर की समस्याओं के समाधान में इसकी सार्थकता ऐसे विराट् रूप में प्रमाणिक कार्य कर इस ग्रन्थ को विद्वद्जन और सामान्य वर्ग के लिए रुचिकर बनाया है। साध्वीजी की सृजनशील बुद्धि, अद्भुत कार्य क्षमता, श्रुत भक्ति के प्रति सजगता एवं पूर्ण निष्ठा का ही परिणाम है कि इन्होंने साधु जीवन एवं सामाजिक कर्त्तव्यों का वहन करते हुए भी बहुत अल्प समय में इस वृहद् कार्य को सम्पन्न किया है। मैं परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ कि सौम्याजी इसी भाँति श्रुत साहित्य को समृद्ध कर गुरुवर्य्या श्री की कीर्ति जग गुंजित करें। आर्य्या शशिप्रभा श्री
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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