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________________ प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ... 127 (18वीं शती) के नाम से एक कृति प्राप्त होती है जिसमें पाक्षिक-प्रतिक्रमण की वर्तमान प्रचलित सम्पूर्ण विधि उल्लिखित है। इसका अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्ती परम्परा में यत्किंचित् परिवर्तन इसी ग्रन्थ के अनुकरण रूप है। यद्यपि इस कृति का नाम साधुविधिप्रकाश है किन्तु इसमें प्रतिक्रमण विधियों का उल्लेख करते हुए श्रावक-श्राविका सम्बन्धी विधि-पाठों को भी केन्द्र में रखा गया है। इस कृति के कुछ मौलिक बिन्दु निम्नलिखित हैं1. खरतर परम्परानुसार पाक्षिक प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में 'जयतिहुअण स्तोत्र' की 30 गाथा बोलना। 2. पाक्षिक विधि शुरु होने के पश्चात 'पुण्यवंतो देवसी के स्थान पर पाक्षिक भणजो, मधुर स्वर में प्रतिक्रमण करजो आदि वाक्यों का प्रयोग । 3. संबुद्धा, प्रत्येक एवं समाप्ति क्षमायाचना के पूर्व 'पनरसहं दिवसाणं... आदि शब्दों का प्रयोग । 4. पाक्षिक अतिचार एवं समाप्ति क्षमायाचना के पश्चात ऐसे दोनों जगह पाक्षिक तप देने का वर्णन आदि कई नवीन क्रिया- वाक्यों का उल्लेख सर्वप्रथम इसी कृति में उपलब्ध होता है । 43 श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की अन्य परम्पराओं में पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि तपागच्छ— इस परम्परा में पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्वोक्त खरतर सामाचारी के अनुसार ही किया जाता है कुछ विधि पाठों में निम्न अन्तर है 1. 'जयतिहुअण स्तोत्र' की जगह 'सकलार्हत् स्तोत्र' बोलते हैं। 2. 'दें दें कि धपमप' की जगह 'स्नात्रस्याप्रतिमस्य' की स्तुति कहते हैं । 3. श्रुतदेवता के स्थान पर 'ज्ञानादिगुण युतानां' और क्षेत्रदेवता की जगह ‘यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य' की स्तुति कहते हैं । 4. सज्झाय के स्थान पर उवसग्गहरं और संसारदावानल की चारों स्तुतियाँ बोलते हैं। शेष विधि क्रिया एवं पाठ समान हैं। 44 अचलगच्छ— इस आम्नायवर्ती साधु एवं गृहस्थ पाक्षिक प्रतिक्रमण करते समय पहले आवश्यक से तीसरे वंदन आवश्यक तक की विधि पूर्वकथित दैवसिक प्रतिक्रमण के समान ही करते हैं। उसके बाद खड़े होकर चौथे
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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