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74... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
एक बार ‘मिच्छामि दुक्कडं' देने के पश्चात पुनः उस पाप का आचरण कर लिया जाए तो वह प्रत्यक्षतः झूठ बोलता है, दम्भ का जाल बुनता 152 इस प्रकार के साधकों के लिए कठोर भाषा में भर्त्सना की गई है। 53 सिद्धान्ततः जो व्यक्ति जैसा बोलता है, यदि भविष्य में वैसा नहीं करता है तो वह सबसे बढ़कर मिथ्यादृष्टि है। वह तत्वतः कथनी-करनी में भेद रखता हुआ सीधे - सरल या नास्तिक लोगों के मन में शंका पैदा करता है और इस रूप में मिथ्यात्व की वृद्धि करता है अत: 'मिच्छामि दुक्कडं' के अनुरूप आचरण करना चाहिए। वही वास्तव में प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण है, अन्यथा विपरीत आचरण करने पर मिथ्यात्व का दोष लगता है।
इस विवेचन के परिपार्श्व में 'मिच्छामि दुक्कडं' का अक्षरश: अर्थ समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। आगमिक व्याख्या साहित्य का सर्वमान्य ग्रन्थ आवश्यकनिर्युक्ति में ‘मिच्छामि दुक्कडं' का अर्थ इस प्रकार बतलाया गया है
‘मिच्छा मि दुक्कडं' में ‘मि' के दो अर्थ हैं- मृदुता या मार्दव । शारीरिक नम्रता को मृदुता कहते हैं और भावात्मक नम्रता को मार्दव कहते हैं। अथवा काया की ऋजुता (सरलता) मृदुता है और भावों की ऋजुता मार्दव है।
'छा' का अर्थ है- असंयम योग रूप दोषों का निरोध करना, उन्हें रोक देना।
'मि' का अर्थ मर्यादा भी है अर्थात मैं चारित्र रूप मर्यादा में अवस्थित हूँ। 'दु' का अर्थ है - निन्दा | मैं दुष्कृत करने वाले भूतपूर्व आत्म पर्याय की निन्दा करता हूँ।
'क' का अर्थ- पाप कर्म की स्वीकृति है अर्थात मैंने पाप कर्म किया है। 'ड' का अर्थ- उपशमभाव है। आत्मा में कारणवश कर्म की शक्ति का अनुद्भूत होना, सत्ता में रहते हुए भी उदय प्राप्त न होना उपशम भाव कहलाता । उपशम भाव के द्वारा पापकर्म का प्रतिक्रमण करना चाहिए।
इसका आशय है कि मैं संयम में स्थित हूँ। मेरे द्वारा जो अनाचीर्ण का आचरण हुआ है, उसे मैं काया और भावों की ऋजुता से स्वीकार कर उसका प्रायश्चित्त करता हूँ।54
समाहारतः प्रतिक्रमण जैन साधना की एक सर्वोत्कृष्ट Practical क्रिया है और इसके Best Result को पाने के लिए उसे एकदम Perfect करना बहुत