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50... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
सापेक्ष है- 1. अचेलक 2. औद्देशिक वर्जन 3. राजपिण्ड परिहार 4. प्रतिक्रमण 5. मासकल्प और 6. पर्युषणाकल्प। इस प्रकार आचारसंहिता के परिप्रेक्ष्य में प्रतिक्रमण की मूल्यवत्ता प्रत्यक्ष सिद्ध है।
प्रायश्चित्त की दृष्टि से प्रतिक्रमण एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। आभ्यन्तर तप में प्रायश्चित्त का मुख्य स्थान है। इसका तात्पर्य यह है कि आभ्यन्तर तप के द्वारा जितनी आत्म विशुद्धि होती है उतनी ही भाव विशुद्धि प्रतिक्रमण के द्वारा भी शक्य है।
प्रायश्चित्त शब्द में प्रायस् और चित्त इन दो का सांयोगिक मेल है। प्रायस् का अर्थ है- पाप या अपराध और चित्त का अर्थ है- उसका संशोधन अर्थात अपराध का संशोधन करना प्रायश्चित्त है । पूज्यपाद ने यही अर्थ किया है - वह प्रक्रिया जिसके द्वारा अपराध की शुद्धि होती है, प्रायश्चित्त कहलाता है। 19 दूसरे शब्दों में कहें तो जिससे पाप का छेदन हो, वह प्रायश्चित्त है। धवला टीका के अनुसार 'प्रायः ' पद लोकवाची है अर्थात व्यक्ति का बोधक है और 'चित्त' से अभिप्राय उसका मन है अतः चित्त की शुद्धि करने वाला कर्म प्रायश्चित्त कहा
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यहाँ 'प्रायश्चित्त' शब्द के अर्थ विश्लेषण का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार विवेक पूर्वक धर्माचरण करते हुए भी प्रमादवश व्रत आचरण में यदि किसी प्रकार का कोई दोष लग जाये तो उसका परिहार प्रायश्चित्त द्वारा किया जाता है उसी तरह पूर्वगत दोषों की शुद्धि प्रतिक्रमण के द्वारा भी होती है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के तुल्य बलवाला एवं विशुद्धि करने वाला है। जैनागमों में प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा गया है - 1. आलोचना योग्य 2. प्रतिक्रमण योग्य 3. तदुभय योग्य 4. विवेक योग्य 5. व्युत्सर्ग योग्य 6. तप योग्य 7. छेद योग्य 8. मूल योग्य 9. अनवस्थापना योग्य 10. पारांचिक योग्य। 21
इन दसविध भेदों में ‘प्रतिक्रमण' का दूसरा स्थान है। इससे नितान्त स्पष्ट होता है कि प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त रूप है और यह प्रायश्चित्त के समान भव (जन्म-जन्मान्तर) और भाव दोनों का विशुद्ध कर्त्ता है।
प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म जगत में दोष (अपराध) को रोग कहा गया है और प्रायश्चित्त को उसकी 'चिकित्सा'। चिकित्सा का उद्देश्य रोगी को कष्ट देना नहीं होता है, अपितु उसके रोग का