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48... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना ___छ: आवश्यकों में प्रथम सामायिक आवश्यक से चारित्राचार की शुद्धि होती है। सामायिक स्थित आत्मा साधु के समान कहलाती है अत: यह दो घड़ी की सामायिक भी सर्वविरति चारित्र प्रदान करने का सामर्थ्य रखती है। - द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक से दर्शनाचार की शुद्धि होती है। चौबीस तीर्थंकर भगवान की स्तुति के साथ सम्यक्त्व शुद्धि का महत्त्व इस लोगस्ससूत्र में समाविष्ट हैं।
तृतीय वन्दन आवश्यक ज्ञान आदि तीन आचारों की शुद्धि करता है। क्योंकि इस आवश्यक के अंतर्गत मुखवस्त्रिका के बोल द्वारा समग्र दोषों की शुद्धि का चिंतन तथा गुरु निश्रा एवं गुरु शरण के भावपूर्वक आशातनाओं का मिथ्यादुष्कृत दिया जाता है। उक्त तीनों आवश्यकों से आचारशुद्धि होती है।
चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक से पापशुद्धि होती है, क्योंकि कृत अतिचारों का भाव शुद्धि पूर्वक मिथ्या दुष्कृत देने से अधिक लाभ मिलता है। पंचम कायोत्सर्ग आवश्यक के द्वारा विशेष रूप से आत्मशुद्धि होती है। षष्ठम प्रत्याख्यान आवश्यक पापविराम रूप होने के कारण इससे भी आत्म शुद्धि होती है।
जैन शासन की इस पवित्र क्रिया द्वारा आत्मश्रेयार्थ सभी को तत्पर होना चाहिए। प्रतिक्रमण का वैशिष्ट्य
जैनागमों में प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है। ‘अवश्यं करणीयत्वाद् आवश्यकम्' अर्थात जो अवश्य करणीय हो, वह आवश्यक कहलाता है। यह साधु और श्रावक दोनों की आवश्यक क्रिया रूप है। साधु सर्वविरति और श्रावक देशविरति कहलाता है। इसलिए साधु के लिए तो प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है, परन्तु श्रावक को भी प्रतिदिन उभय सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि जिसने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये हों उसे तो प्रतिक्रमण करना उचित है, परन्तु जिसने व्रत स्वीकार नहीं किया हो उसे तत्सम्बन्धित व्रतों के दोषों का लगना असम्भव है इसलिए अव्रती को प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है? प्रज्ञावान पुरुषों ने इसका सुन्दर समाधान करते हुए कहा है कि व्रती एवं अव्रती दोनों को प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि मात्र अतिचारों की शद्धि के लिए ही