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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ... 357
दूसरा कारण यह है कि सामायिक अपेक्षा रहित है क्योंकि सामायिक में सभी पदार्थों पर समभाव होता है अतः उसमें अपवाद की अपेक्षा नहीं रहती हैं शंका- इस सम्बन्ध में प्रश्न उठाया गया है कि सर्वसावद्ययोग का त्याग सर्वकाल के लिए नहीं होता है, क्योंकि इसमें जावज्जीवाए - जीवनपर्यन्त इस प्रकार काल मर्यादा है। इसलिए इसमें वर्तमान जीवन पूर्ण होने के बाद 'मैं पाप करूंगा' - ऐसी अपेक्षा है। यदि इस जीवन के बाद भी पाप करने की अपेक्षा न हो तो यावज्जीवन कहकर उसे मर्यादित करने की क्या आवश्यकता है। अतः यावज्जीवन शब्द के द्वारा यह सिद्ध नहीं होता है कि 'सामायिक अपेक्षा से रहित है।'
समाधान— सामायिक में जीवन पर्यन्त ऐसी मर्यादा प्रतिज्ञा भंग के भय से रखी जाती है न कि अपेक्षा से। क्योंकि जीवन पूर्ण होने के बाद यदि मोक्ष नहीं मिला तो निश्चित पाप - प्रवृत्ति होना है इसलिए सामायिक काल मर्यादापूर्वक होने पर भी निरपेक्ष है।
सामायिक में आगारों की अनावश्यकता को सिद्ध करने हेतु सुभट का दृष्टान्त समझने योग्य है। सामायिक सुभट भाव के समान है । युद्धकाल में योद्धा के हृदय में जैसा भाव होता है वैसा ही भाव सामायिक को स्वीकार करने वाले के मन में होता है। सुभट (योद्धा) के हृदय में 'मरना' या 'विजय प्राप्त करना' - ये दो निर्णय होते हैं। ऐसे निर्णय वाले योद्धा के मन में शत्रु का आक्रमण होने पर भी पीछे हट जाना, डर जाना आदि विचार आते ही नहीं हैं उसी प्रकार साधु को भी सामायिक में 'मरना' या 'कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना' - ये दो निर्णय होते हैं अर्थात मृत्यु प्राप्त कर लूंगा, किन्तु सामायिक भंग नहीं करूंगा - ऐसा दृढ़ निश्चय होता है | 78
प्रत्याख्यान में आगार मूलभाव के बाधक कैसे नहीं होते हैं? आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रस्तुत प्रसंग में 'प्रत्याख्यान में आगार समभाव के बाधक हैं' - इस मान्यता का निराकरण भी किया है। वे कहते हैं कि मरना या विजय प्राप्त करना- ऐसे संकल्प वाला योद्धा विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध में प्रवेश करता है, कभी मौका देखकर निकल भी जाता है, कभी स्वयं लड़ना बन्द कर देता है, कभी शत्रु को रोकता है - इस प्रकार अनेक अपवादों का सेवन करता है, लेकिन उन अपवादों से उसके मूल संकल्प पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।