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________________ कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ...309 कन्हैयालालजी लोढ़ा के अनुसार कर्तृत्व भाव से की गई प्रवृत्ति श्रम युक्त होती है। श्रम काया के आश्रय के बिना, पराधीन हुए बिना नहीं हो सकता। काया के आश्रित तथा पराधीन रहते हुए काया से असंग होना संभव नहीं है।काया से असंग हुए बिना कायोत्सर्ग नहीं हो सकता।कायोत्सर्ग के बिना अर्थात काया से जुड़े रहते जन्म-मरण, रोग-शोक, अभाव, तनाव, हीनभाव, द्वन्द्व आदि दु:खों से मुक्ति कदापि सम्भव नहीं है। अतएव समस्त श्रमसाध्य प्रयत्नों एवं क्रियाओं या प्रवृत्तियों से रहित होने पर कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग से ही निर्वाण प्राप्त होता है एवं सर्व दुःखों से मुक्ति होती है।100 जैन-परम्परा की भाँति बौद्ध परम्परा में भी देह व्युत्सर्ग की साधना पर बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव ने कहा है कि- सभी देहधारियों को जैसे सुख हो वैसे यह शरीर मैंने निछावर कर दिया है। वे अब चाहे इसकी हत्या करें, निन्दा करें, इस पर धूल फैंके, चाहे खेलें, चाहे हँसे या चाहे विलास करें। मुझे इसकी क्या चिन्ता? इस प्रकार देह व्युत्सर्ग की धारणा देखने को मिलती है।101 __ इस प्रकार कायोत्सर्ग Self Control प्राप्त करने की Practical क्रिया है। कायोत्सर्ग के सध जाने के बाद बाह्य प्रवृत्ति का कोई भी प्रभाव साधक मन पर नहीं पड़ता। ऐसा ही व्यक्ति व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक विकास के चरम शिखर पर पहुँच सकता है। आत्मा की वैभाविक परिणतियों पर नियंत्रण पाने के लिए कायोत्सर्ग Remote Control के समान है जिससे साधक विजेता ही नहीं मनोविजेता भी बन जाता है। सन्दर्भ-सूची 1. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गा. 119, पृ. 161 2. सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ। उत्तराध्ययनसूत्र, 30/36 3. असइं वोसठ्ठचत्तदेहे। दशवैकालिकसूत्र, 10/13 4. वोसट्ठो पडिमादिसु विनिवृत्तक्रियो । दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि, पृ. 240 5. व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धा भावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः। दशवैकालिक हरिभद्रीय टीका, पृ. 267
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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