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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ...307 विधान पूर्व-पश्चाद् भाव को अनुलक्षित करके किया गया है। प्रत्येक हेतु स्वतन्त्र क्रिया का सूचन करता है और प्रत्येक क्रिया उत्तर क्रिया का हेतुभूत है।
• प्रस्तुत सूत्र का तीसरा भाग 'पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए'- इन तीन पद से युक्त है और कायोत्सर्ग का प्रयोजन दर्शाता है। प्रबोध टीकाकार के अनुसार इन तीन पदों से तात्पर्य है कि आलोचना और प्रतिक्रमण से पापकर्मों का घात होता हैं, परन्तु निर्घात (विशेष घात) नहीं होता है। उस क्रिया को सिद्ध करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।
• प्रस्तुत सूत्र का चौथा भाग 'ठामि काउस्सग्गं'- इन दो पदों से निष्पन्न है। यह कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा दर्शाता है।
• तस्सउत्तरी सूत्र का यह संदेश है कि व्यक्ति के द्वारा किसी तरह की भूल हो जाए तो उस अपराध का सरलता पूर्वक स्वीकार करना चाहिए, निष्कपट भाव से उसकी निंदा करनी चाहिए। आप्त पुरुषों के वचनों के प्रति श्रद्धा रखते हुए उनके द्वारा प्ररूपित प्रायश्चित्त मार्ग का ग्रहण करना चाहिए, पुनः उस प्रकार की भूल न हो उसके लिए चित्तवृत्तियों का सम्यक् शोधन कर, उसमें रहे हुए दोषों या शल्यों को दूर करना चाहिए। यह आत्म शुद्धि का राजमार्ग है।
• इस सूत्र पर भद्रबाहुस्वामी कृत नियुक्ति है, जिनदासगणिमहत्तर कृत चूर्णि है और आचार्य हरिभद्र रचित टीका है। हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में, शान्तिसूरि कृत चैत्यवंदन महाभाष्य में और देवेन्द्रसूरि कृत देववंदनभाष्य में इस सूत्र पर विवरण लिखा गया है।
• आवश्यकसूत्र के पाँचवें अध्ययन में यह सूत्रपाठ है।
3. अन्नत्थसूत्र- इसका अपर नाम आगारसूत्र है। इसमें प्रमुख रूप से आगारों (अपवाद जन्य क्रियाओं) के नाम उल्लिखित हैं। सामान्यतया यह सूत्र चार भागों में विभक्त है- 1. प्रतिज्ञा 2. स्वरूप 3. समय और 4. आगार। सूत्रपदों के साथ प्रस्तुत विभाजन इस प्रकार है1. प्रतिज्ञा- अप्पाणं कायं वोसिरामि- मेरी काया का त्याग करता हूँ। 2. स्वरूप- ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं- स्थान से स्थिर होकर, मौन से
स्थिर होकर, ध्यान से स्थिर होकर। 3. समय- 'जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि, ताव'
जब तक 'नमो अरिहंताणं' पद बोलकर पूर्ण न करूँ, तब तक।