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196...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने वंदन का विशिष्ट अर्थ बतलाते हुए कहा है कि वंदन योग्य धर्माचार्यों को 25 आवश्यक से विशुद्ध और 32 दोषों से रहित नमस्कार करना है।50 द्वादशावर्त्तवन्दन पच्चीस आवश्यक क्रियाओं से समन्वित होकर ही किया जाता है।
गुरुवंदन के पच्चीस आवश्यक- आवश्यकनियुक्ति, गुरुवंदनभाष्य आदि में उल्लेखित पच्चीस आवश्यक निम्न हैं
दो अवनत, यथाजातमुद्रा, द्वादशावर्त रूप कृतिकर्म, चार शिरोनमन, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण- ये पच्चीस वंदन कर्म हैं।
अवनमन- सिर झुकाकर वन्दन करना अवनमन कहलाता है। गुरुवन्दन करते समय दो अवनमन होते हैं(i) इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए- इन पाँच पदों के __द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने हेतु आज्ञा माँगते हुए किंचित मस्तक
झुकाना, प्रथम अवनमन है। (ii) दूसरी बार वन्दन करते समय पुनः इन्हीं पदों के उच्चारण पूर्वक मस्तक
सहित आधा शरीर झुकाना, दूसरा अवनमन है।
यथाजात- जन्म के समय जैसी मुद्रा हो अथवा दीक्षा ग्रहण करते समय जैसी मुद्रा धारण की जाती है उस नम्र मुद्रा (जुड़े हुए हाथों को मस्तक पर लगाना ऐसी मुद्रा) से युक्त होकर वन्दन करना, यथाजात आवश्यक है। जन्म दो प्रकार का होता है
(i) भवजन्म- माता के गर्भ से बाहर आना। (ii) दीक्षाजन्म- संसार माया रूपी स्त्री की कुक्षि से बाहर आना।
यहाँ यथाजात का प्रयोजन उभय जन्मों से है। भव जन्म के समय शिशु के दोनों हाथ ललाट पर लगे हुए होते हैं उसी तरह वंदन-कर्ता शिष्य भी दोनों हाथ ललाट पर लगाते हुए विनम्र मुद्रा से वंदन करें। दीक्षा लेते समय मुनि के चोलपट्ट, रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका- ये तीन उपकरण मुख्य होते हैं वैसे ही द्वादशावर्तवंदन के समय गृहस्थ या मुनि तीन उपकरण ही रखें। मुनि हो, तो पूर्वोक्त तीन उपकरण रखें तथा गृहस्थ हो, तो धोती-चरवला एवं मुखवस्त्रिकाये तीन उपकरण रखें। शरीर का ऊर्श्वभाग आवृत्त रहना चाहिए। __ आवर्त्त- सूत्रोच्चारण पूर्वक विशेष प्रकार की शारीरिक क्रिया आवर्त्त