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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...143 4. तीर्थंकर सावध योगों से विरत होने का उपदेश देने के कारण उपकारक हैं- तीर्थंकर ही संसार के सभी जीवों की आत्मकल्याण का प्रशस्त मार्ग बतलाने में सक्षम होते हैं इसीलिए लोगस्ससूत्र में चतुर्विंश अरिहंत परमात्मा का ही गुणोत्कीर्तन किया गया है।
समाहारत: तीर्थंकर भगवान भव्य जीवों को सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट धर्म संप्राप्त करवाने में पूर्ण समर्थ होते हैं और तीर्थ स्थापना द्वारा प्राणी मात्र को देश विरति और सर्व विरति चारित्र में प्रवृत्त कर उनका उपकार करते हैं अतएव आवश्यक अनुष्ठान के रूप में तीर्थंकर पुरुष ही स्तुत्य एवं वन्दनीय है।24 चतुर्विंशतिस्तव दूसरा आवश्यक क्यों?
जैन विचारणा में आत्मशुद्धि के लिए जो अवश्यकरणीय है, उसे आवश्यक कहा गया है। आवश्यक छह माने गये हैं, उनमें चतुर्विंशतिस्तव को द्वितीय स्थानवर्ती रखने के पीछे मुख्य कारण यह है कि आत्मिक विशुद्धि या
चैतसिक निर्मलीकरण के लिए महापुरुषों का गुणगान करना प्राथमिक भूमिका रूप है क्योंकि गुणोत्कीर्तन के बिना गुणसंग्रहण और गुणसंग्रहण के बिना परमात्मपद की उपलब्धि संभव नहीं है अत: इस आवश्यक का परिपालन जरूरी है। दूसरा यह कीर्तन शान्त, एकान्त, स्थित भावधारा में सम्यक् रूप से किया जा सकता हैं इसलिए सामायिक आवश्यक के पश्चात इसे स्थान दिया गया है।
सामायिक आवश्यक में समुपस्थित आत्मा नियमत: सावध योगों से निवृत्त एवं सांसारिक विकल्पों से मुक्त होने के कारण कुछ समय के लिए उसके अध्यवसाय स्थिर बन जाते हैं तथा चिरकालीन अभ्यास के द्वारा उसकी स्थिरता में भी अभिवृद्धि होती जाती हैं। परिणामस्वरूप पाप रूपी कीचड़ से सना हुआ व्यक्ति पाप कार्यों को विराम दे देता है। इसी के साथ मन, वाणी एवं शरीरइन त्रियोग की अशुभ धारा शुभ में परिवर्तित होने से तीर्थंकरों की स्तुति करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है।
दूसरा कारण यह है कि सामायिक व्रत में स्थिर हआ साधक स्वयं में रहे हुए दोषों का भी निरीक्षण करता है। जब अपने दोष ध्यान में आ जाते हैं तब दोष मुक्त का उत्कीर्तन आत्मोत्साह एवं अहोभाव पूर्वक होता है। जिससे यह अनुष्ठान विशिष्ट निर्जरा का हेतु बनता है अथवा सामायिक द्वारा सुस्थिर हुई