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xiv... षड़ावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में होता तब तक आत्म शोधन के चाहे कितने ही प्रयत्न हो आश्रव का द्वार बंद नहीं होता। प्रत्याख्यान आश्रव की प्रवृत्ति को रोक देता है। इस प्रकार षडावश्यकों के माध्यम से आत्म शोधन की यह प्रक्रिया पूर्णता की ओर पहुँचती है।
साध्वी सौम्यगुणा श्रीजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में न केवल इन षडावश्यकों का अर्थ स्पष्ट किया है अपितु तत्सम्बन्धी साहित्य का भी विस्तार से उल्लेख किया है। इसी के साथ आगम काल से अब तक आए परिवर्तन एवं उनके कारणों की परस्पर चर्चा तथा षडावश्यक विषयक विविध शंकाओं के समाधान करते हुए साध्वीजी ने जिज्ञासु साधकों के लिए एक प्रपा प्रस्तुत की है। श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यक सूत्रों पर प्राचीन काल से अब तक अनेक ग्रन्थों का लेखन हुआ है। आवश्यकसूत्र, उसकी नियुक्ति और चूर्णि तो महत्त्वपूर्ण है ही इसके अतिरिक्त आचार्य हरिभद्रसूरि से लेकर अब तक जो टीकाएँ लिखी गई वे भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वर्तमान में उपाध्याय अमरमुनिजी ने श्रमणसूत्र नाम से हिन्दी व्याख्या की है वह भी इस विषयक पठनीय कृति है। साध्वीजी ने इनका आलोडन-विलोडन कर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं उसकी अनुमोदना करते हैं और यह अपेक्षा रखते हैं कि भविष्य में भी वह अपनी सुन्दर कृतियों से सरस्वती के भण्डार को सुशोभित करती रहें क्योंकि जिनशासन के ज्ञान भण्डार अनेक ऐसी कृतियों से समृद्ध हैं, जिन पर आधुनिक संदर्भो में लेखनी चलाई जा सकती है और वर्तमान युग में उनकी आवश्यकता भी है। सौम्यगुणा श्रीजी जैसी साध्वियों को ऐसे ज्ञान भंडारों का अवलोकन कर कुछ कृतियों के अनुवाद का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
उनकी शोधपूर्ण दृष्टि और परिश्रम का लाभ आम जनता को मिले ऐसी शुभ भावना है।
डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर