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xii... षड़ावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
अभिधेय है गणीजनों के प्रति आदर भाव प्रकट करना, उनका सत्संग करना
और उनके प्रति श्रद्धा से आपूरित रहना। गुणीजनों के प्रति यह प्रमोद की वृत्ति व्यक्ति के चित्त को उदार बनाती है और यही व्यक्ति को वीतरागता की दिशा में अग्रसर करती है अत: इसे जैन साधना का दूसरा आवश्यक चरण माना गया है।
तीसरे आवश्यक के द्वारा गुणीजनों के प्रति विनय भाव प्रकट किया जाता है। जो साधक समभाव की साधना करेगा उसके मन में स्वाभाविक रूप से गुणीजनों के प्रति प्रमोद की भावना उत्पन्न होगी। यह श्रद्धा भाव ही उसे पूज्य के चरणों में झुकने हेतु प्रेरित करता है। वस्तुत: वंदन स्तुति का ही एक अंग है और विनय गुण का आधार है। जैन आगमों में तो यहाँ तक कहा गया है कि धर्म का मल विनय है। धर्म के दस लक्षणों में विनयशीलता को बहत ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। विनय किसके प्रति और कब प्रकट किया जाना चाहिए? इसकी जैन आगमों में विस्तृत चर्चा है। विनय गुण की महत्ता को बताते हए कहा गया है कि यदि साधक अपनी साधना के माध्यम से वीतराग स्थिति को भी प्राप्त कर ले तो भी उसे गुरुजनों के प्रति विनय का भाव तो रखना ही चाहिए। श्रीमद् राजचन्द्रजी आत्मसिद्धि शास्त्र में इसकी मूल्यवत्ता को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि यदि शिष्य वीतरागता या सर्वज्ञता को भी उपलब्ध हो जाए तो भी उसे वीतरागता या सर्वज्ञता की उपलब्धि का अहंकार न रखते हुए अपने गुरुजनों के प्रति विनय रखना चाहिए। चाहे वे अभी छद्मस्थ ही क्यों न हो।
वस्तुत: जब व्यक्ति में समत्व का विकास होगा तब ही उसके मन में गुरुजनों के प्रति सम्मान की भावना अभिवृद्ध हो सकेगी और उनके चरणों में झुक सकेगा। वंदना विनय गण की ही अभिव्यक्ति है। ___आवश्यकों में चतुर्थ आवश्यक प्रतिक्रमण है। आज स्थिति यह है कि प्रतिक्रमण की विधि इस प्रकार विकसित कर ली गई है कि उसमें षडावश्यक समहित हो जाते हैं। चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक का मूल अर्थ तो वापस लौट आना है। इसका तात्पर्य स्पष्ट करते हुए जैन आचार्यों ने कहा है कि विभाव दशा में गई हुई आत्मा का स्वभाव दशा में लौट आना ही प्रतिक्रमण है। विभाव दशा का तात्पर्य राग-द्वेष या कषाय में आत्मा की अनुरक्ति है। इसी अनुरक्ति का त्याग कर जब आत्मा पुन: समत्व पूर्ण स्थिति में लौटती है तो उसे प्रतिक्रमण कहा जाता है। यद्यपि प्रतिक्रमण शब्द के और भी अनेक अर्थ किए जाते हैं परन्तु