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xlviii... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
मान,
प्रायश्चित्त से ही शक्य है। इस लोक में प्रमादवश किए गए पापों की विशुद्धि का हेतु आलोचना एवं प्रायश्चित्त को ही माना गया है। सामान्यतया क्रोध, माया एवं लोभ के आवेगों तथा शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से प्रेरित आत्मा जानते या अजानते हुए पुण्य-पापमय आचरण करती हैं और उन कर्मों के परिणाम को भवान्तर में भोगकर ही क्षय करना पड़ता है, किन्तु कठोर तपस्या, चित्तशुद्धि या ऋजु परिणामों से की गई आलोचना एवं प्रायश्चित्त द्वारा अशुभ कर्मों का बिना भोगे भी क्षय किया जा सकता है । आगमों में कहा गया है कि पूर्व में किए गए दुष्चिन्तित एवं दुष्प्रतिकान्त पापकर्मों के फल का वेदन किये बिना मोक्ष नहीं होता है। मात्र तपश्चरण के द्वारा ही उनके फल ( विपाक) के वेदन से छुटकारा मिल सकता है। अज्ञानतावश अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हुए या दूसरों के आदेशवश, भयवश या हास्यवश किये गये पापों का क्षय सद्गुरु के समक्ष उनकी आलोचना करके एवं प्रायश्चित्त - विधि का सम्यक आचरण करके ही हो सकता है।
इस प्रकार साधक जीवन में आलोचना एवं प्रायश्चित्त का अत्यधिक महत्त्व है। जैसे बिना विचार किये सामदोष युक्त तीव्र ज्वर में दी गई महान औषधि भी आरोग्य कारक नहीं होती, उसी प्रकार आलोचना के बिना प्रायश्चित्त स्वरूप एक पक्ष (पन्द्रह दिन) का उपवास आदि महान तप भी संवरयुक्त निर्जरा कारक नहीं होता तथा जैसे राजा मन्त्रियों से परामर्श करके भी उनके द्वारा दिये गये परामर्श को कार्यान्वित न करने पर विजयी नहीं होता, उसी प्रकार आलोचना करके भी विहित आचरण न करने वाला मोक्षार्थी दोषों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता यानी दोषों से परिमुक्त नहीं हो सकता। आशय है कि आत्मशुद्धि एवं भाव विशुद्धि के लिए आलोचना और प्रायश्चित्त दोनों का • समाचरण आवश्यक है । केवल आलोचना करने से या मात्र प्रायश्चित्त स्वीकार करने से मन की मलिनताएँ दूर नहीं हो जाती- इन दोनों के समवेत आचरण से ही पाप निवृत्ति संभव है। पण्डित आशाधरजी कहते हैं कि जिसका चित्त सद्गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त में रमता है उसका अन्तर्मन जीवन रूपी निर्मल दर्पण में मुख के समान चमकता है।
यहाँ उल्लेख्य है कि प्रायश्चित्त दान के कुछ नियम होते हैं- साधकों ने