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स्वकथ्य
इस वसुधा पर जीवन यापन करते हुए अथवा अध्यात्म साधना में जो भी दोष लगे हों, उन दोषों या अपराधों को गुरु के समक्ष शुद्ध भाव से प्रकट करना आलोचना है। वस्तुत: आलोचना स्व-निन्दा है। परनिंदा करना सरल है, किन्तु स्वयं के दोषों को देखकर अपनी निन्दा करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है। जिसका मानस बालक के सदृश सरल होता है वही अपने दोषों को प्रकट कर सकता है। भगवती आदि आगमों में स्पष्ट निर्देश है कि कृत पापों की आलोचना जब तक नहीं की जाती तब तक हृदय में शल्य बना रहता है और जब तक शल्य है तब तक आत्म विशुद्धि के सोपान पर नहीं चढ़ा जा सकता। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है- किसी साधक के अन्तर्मन में आलोचना की भावना उत्पन्न हुई हो और उसने आलोचना के लिए प्रस्थान कर दिया हो कि मुझे गुरु के समक्ष जाकर अपने सभी दोषों की आलोचना कर लेनी है और इस भावना को जीवन्त रखते हुए किसी कारणवश उसका निधन हो जाये तो भी वह साधक आराधक कहलाता है, क्योंकि उसके अन्तर्मानस में पाप के प्रति पश्चात्ताप भरा हुआ था। आयुष्य पूर्ण हो जाने से वह आलोचना न भी कर सका हो, फिर भी उसके मन में पश्चात्ताप के भाव होने से वह आराधक की श्रेणि में गिना जाता है।
जो साधक यह विचार करता है कि यदि मैं अपने पापों को प्रकट कर दूंगा तो सबकी निगाह से गिर जाऊंगा, इस कारण से पापों की आलोचना करने में कतराता है और सोचता है कि यदि मैंने दोषों को स्वीकार कर लिया और प्रायश्चित्त ले लिया तो ‘लोग मुझे दोषी मानेंगे'। 'मेरी प्रतिष्ठा नष्ट हो जायेगी' ऐसा विचार करने वाला व्यक्ति आलोचना नहीं कर सकता है। जब साधक के मन में यह विचार आये कि 'मैं जब तक पापों को प्रकट नहीं करूंगा वे शल्य की तरह मुझे सदा सताते रहेंगे। अत: मुझे अपने दोषों को बताकर पापों से मुक्त होना चाहिए' तभी वह आलोचना कर सकता है।