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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ... 177 अतिविसुद्धिकोडिवसहीसु पट्टीवंसाइचउद्दससु चउगुरु विसोहिकोडीसु दूसियाइसु चउलहुया । भणियं च
आइए पणगं चउसु, अविसुद्धा सुं चउगुरु,
खमणमन्नासु।
चलहू वसहीसु विसोहिकोडीसु चडलहुगा ।।1।। (विधिमार्गप्रपा, पृ. 89)
1. कालातिक्रान्त- जहाँ चातुर्मास काल के अतिरिक्त शेष काल में एक महीना से अधिक रहते हैं वह स्थान मुनियों के लिए कालातिक्रान्त कहलाता है। ऐसी कालातिक्रान्त वसति में रहने पर पणग का प्रायश्चित्त आता है।
2. उपस्थापना-जिस वसति में चातुर्मास कर चुके हैं वहाँ शेष काल में दो महीने पहले और चातुर्मास हेतु आठ महीने पहले पुनः आकर रहने से वह वसति उपस्थापना दोष से दूषित कही जाती है।
3. अभिक्रान्त- जहाँ चरक या गृहस्थ आदि रहे हुए हों अथवा जो स्थान सभी के लिए हो वहाँ मुनि का ठहरना, अभिक्रान्त कहलाता है ।
4. अनभिक्रान्त - जो स्थान सर्व सामान्य हो और उस जगह का किसी ने उपयोग नहीं किया हो वहाँ साधुओं का रुकना, अनभिक्रान्त कहा जाता है।
5. वर्ज्य - जो स्थान गृहस्थ ने अपने लिए बनवाकर बाद में साधुओं को रुकने हेतु दे दिया हो और स्वयं के लिए नया मकान तैयार किया हो तब पूर्व प्रदत्त वसति मुनि के लिए वर्ज्य कही जाती है । उपरोक्त चारों स्थानों का उपयोग करने पर चतुः लघु का प्रायश्चित्त आता है।
6. महावर्ज्य - श्रमण, ब्राह्मण आदि पाखंडी सन्यासियों के लिए निर्मित वसति महावर्ण्य कहलाती है।
7. सावद्य-वनीपक आदि पाँच प्रकार के श्रमणों के लिए निर्मित वसति सावद्य कहलाती है।
8. महासावद्य-जैन मुनियों के लिए नव निर्मित वसति महासावद्य कहलाती है।
9. अल्पक्रिया - जो वसति उपर्युक्त दोषों से रहित हो, गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार करवायी हो और उत्तरगुण सम्बन्धी परिकर्म से रहित हो, वह वसति अल्पक्रिया वाली कहलाती है। उक्त चारों प्रकार की वसति में रहने पर चतुः गुरु का प्रायश्चित्त आता है।