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144...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण आदि प्रत्येक वनस्पतिकाय म्रक्षिप्त सम्बन्धी दोष लगने पर, सूत कात रही, धान्य आदि पीस रही, रूई पीज रही, मक्खन आदि का विलोडन कर रही दात्री के द्वारा आहार ग्रहण करने पर, निक्षिप्त-पिहित-संहत-उन्मिश्र-अपरिणत-छर्दित सम्बन्धी आहार में प्रत्येक वनस्पतिकाय का परंपरा से दोष लगने पर तथा निक्षिप्त से लेकर छर्दित सम्बन्धी आहार में मिश्र प्रत्येक वनस्पतिकाय का अनन्तर से दोष लगने पर पुरिमड्ढ का प्रायश्चित्त आता है।
अचिर स्थापना सम्बन्धी, सूक्ष्म प्राभृतिका सम्बन्धी, सस्निग्ध अप्काय प्रक्षिप्त सम्बन्धी, सरजस्क पृथ्वीकाय म्रक्षिप्त सम्बन्धी, निक्षिप्त-पिहित-संहृतउन्मिश्र-अपरिणत-छर्दित सम्बन्धी आहार में मिश्र वनस्पतिकाय एवं अनन्तकाय दोनों का दोष लगने पर नीवि का प्रायश्चित्त आता है। मूलकर्म सम्बन्धी दोष लगने पर मूल का प्रायश्चित्त आता है। आहार सम्बन्धी 47 दोषों की विस्तृत प्रायश्चित्त विधि
कयपवयणप्पणामो, सत्तालीसाई पिण्डदोसाणं । वोच्छं पायच्छित्तं, कमेण जीयाणुसारेणं ।।1।। पणगं तह मासलहुं, मासगुरुं चउलहुं च चउगुरुयं । सण्णाओ नि.पु.ए.आ.उ., जोगओ जाण कल्लाणं ।।2।। सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पायणाइ दोसाओ। . दस एसणाइ दोसा, संजोयणमाइ पंचेव ।।3।। आहाकम्मे चउगुरु, दुविहं उद्देसियं वियाणाहि । ओहविभागेहिं तहिं, मासलहू ओहनिद्देसो ।।4।। बारसविहं विभागे, चहु उद्दिष्टुं कडं च कम्मं च । उद्देस-समुद्देसा, देससमा देसभेएणं ।।5।। चउभेए उद्दिष्टे, लहुमासो अह चउव्विहंमि कडे । गुरुमासो चउलहुयं, कम्मुद्देसे य नायव्वं ।।6।। कम्मसमुद्देसाइसु तिसु, चउगुरुयं भणंति समयण्णू । दुविहं तु पूइकम्मं, उवगरणे भत्तपाणे वा ।।7।। उवगरणपूइमासलहु, मासगुरु भत्तपाणपूइम्मि । जावंतिय-जइ-पासंडि-मीसजायं भवे तिविहं ।।8।। जावंतिमीस चउलहु, चउगुरु पासंडि-सपरमीसंमि। चिर-इत्तरभेएणं, निद्दिट्ठा ठावणा दुविहा ।।७।।