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अध्याय-6
जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ एवं तुलनात्मक अध्ययन
जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रायश्चित्तदान विधि से सम्बन्धित अनेकों रचनाएँ विद्यमान हैं। आगम वांगमय में व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, निशीथसूत्र, महानिशीथसूत्र, जीतकल्प आदि एवं तद्विषयक निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीकाएँ प्रमुख हैं तथा आगमेतर साहित्य में यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, आलोचना विधान, प्रायश्चित्तसंग्रह, पंचाशकप्रकरण, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि ग्रन्थों का विशिष्ट स्थान है।
प्राचीन युग में धृति - संहनन की सबलता के कारण निशीथ आदि सूत्रों में वर्णित प्रायश्चित्त ही दिया जाता था, क्योंकि उस समय केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, आगम व्यवहारी एवं श्रुतव्यवहारी मौजूद थे। इसी के साथ धारणाव्यवहार और आज्ञाव्यवहार भी उपस्थित था। धीरे-धीरे कालदोष के प्रभाव से पाँच व्यवहारों में से प्रारम्भ के चार व्यवहारों का प्रवर्त्तन करने वाले गीतार्थ मुनियों का अभाव हो गया, अत: वह व्यवहार धर्म भी विच्छिन्न हो गया। वर्तमान में जीतव्यवहार ही रह गया है। जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार प्रवृत्त होता है वह जीतकल्प व्यवहार कहलाता है अथवा जो व्यवहार बहुश्रुतों के द्वारा अनेक बार प्रवर्तित हुआ और किसी अन्य बहुश्रुत के द्वारा जिसका प्रतिषेध नहीं किया गया, वह वृत्तानुवृत्त व्यवहार प्रमाणीकृत होने से जीत व्यवहार कहलाता है। इस समय जीत व्यवहार प्रवर्त्तमान होने से उसके अभिरूप ही प्रायश्चित्त - विधि कहेंगे । यद्यपि परवर्ती अनेक ग्रन्थों में जीतव्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त कहा गया है किन्तु प्रस्तुत अध्याय में आचार्य जिनप्रभसूरि रचित विधिमार्गप्रपा एवं आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के अनुसार प्रायश्चित्त विधि वर्णित करेंगे। क्योंकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में प्रचलित विधि-विधान प्रायः