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तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ...3 संसारी आत्मा के शुद्ध प्रदेशों पर पाप कर्मों की चट्टानें जमी हुई हैं। वह तपाग्नि से पिघल कर सूख जाती हैं या चेतना केन्द्र से निःसत हो जाती हैं। कहने का तात्पर्य है कि तप आचरण कर्म रूपी हिमखण्डों को भी चूर-चूर करने की ताकत रखता है।
• उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार "तपति पुरोपात्त कर्माणि क्षपणेनेति तपो ......... यदर्हद्वचनानुसारि तदेव समीचीनमुपादीयते।" अर्थात जो पूर्व उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है, वह तप है। अर्हत वचन के अनुसार तप ही सम्यक् है और वही उपादेय है।
• आवश्यक हारिभद्रीयटीका एवं दशवैकालिक हारिभद्रीयटीका में तप का मर्म बताते हुए कहा गया है- "तपयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः।" जो अनेक भवों में उपार्जित आठ प्रकार के कर्मों को जलाता है, नष्ट करता है, वह तप है।10
• दिगम्बर परम्परा के पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में पृथक्-पृथक् प्रसंगों के अनुसार तप की अनेक व्याख्याएँ उल्लिखित की हैं। वे कहते हैं- "अनिगूहित्त वीर्यस्य मार्गाविरोधिकाय क्लेशतपः" आत्मशक्ति को न छिपाते हुए मोक्ष मार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश अर्थात कष्ट देना तप है।11 "कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः।" कर्म क्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है।12 "अनशनाव-मौदर्यादि लक्षणं तपः" अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप है।13 पूज्यपाद की उक्त सभी व्याख्याएँ तप के आध्यात्मिक अर्थ को सूचित करती हैं।
• तत्त्वार्थवार्तिककार ने तप की व्याख्या करते हुए समझाया है कि "कर्मनिर्दहनात्तपः" कर्म को विशेष रूप से दहन कर देना, जला देना तप है। जैसे- अग्नि सचित तृण आदि ईंधन को भस्म कर देती है वैसे ही अनशन आदि तप मिथ्यादर्शन आदि कर्मों का दाह करते हैं, इसलिए तप कहे जाते हैं।14
• इसी क्रम में आचार्य अकलंक यह भी कहते हैं कि - "देहेन्द्रिय तापाद्वा।" अर्थात अनशन आदि बाह्य तप देह और इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति को रोककर उन्हें तपा देते हैं, अत: इन्हें तप संज्ञा प्राप्त है। आशय यह है कि बाह्य तप से इन्द्रियों का निग्रह सहज हो जाता है।
. तत्त्वसार में देवसेन ने कहा है- "परं कर्मक्षयार्थं यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम्।" विशिष्ट कर्मों का क्षय करने के लिए जिस शरीर आदि को तपाया जाता है, वह तप रूप में स्मृत होना चाहिए।15