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________________ अध्याय-1 तप का स्वरूप एवं परिभाषाएँ श्रमण संस्कृति में तप योग का गौरवपूर्ण स्थान है। भारतीय सन्त-साधकों ने तो इसे तप प्रधान संस्कृति से ही उपमित किया है। तपस्या श्रमण संस्कृति का प्राण है, क्योंकि श्रमण ही तपोसाधना के निर्वाहक होते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने तप का दूसरा नाम श्रमण दिया है। जो साधक आत्म कार्यों में श्रम करता है, तप की साधना करता है, वह श्रमण है। शीलांकाचार्य ने स्थानांग टीका में इसी बात को पुष्ट करते हुए कहा है कि जो क्षीणकाय है, तप द्वारा शरीर को खेद-खिन्न करता है, वह श्रमण है। वस्तुतः 'श्रमण' शब्द तपस्वी का वाचक है। मुनि जीवन का मूल मन्त्र तप है, तप ही उसका परम धर्म है। इसीलिए श्रमण संस्कृति ने तप को धर्म की संज्ञा दी है। पूर्वाचार्यों ने इसी मत का अनुसरण करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा है__“धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो' अर्थात अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। इस आगम पाठ के आधार पर कहा जा सकता है कि तप के बिना धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। कोई भी साधना पद्धति तपःशून्य नहीं हो सकती। तप दो वर्णों का अत्यन्त लघु शब्द है, किन्तु इसकी शक्ति अचिन्त्य है। जैसे- 'अणु' शब्द छोटा है लेकिन उसकी शक्ति विराट् है। आज बड़े-बड़े राष्ट्र भी अणु (परमाणु) शक्ति से भयभीत हैं, वैसे ही तपःशक्ति भी असीम और विराट् है। पूर्वाचार्यों ने इस शब्द की अनेक व्याख्याएँ की हैं तथा भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियों के माध्यम से 'तप' को सम्यक् रूप से विश्लेषित किया है। यद्यपि तप शब्द की व्याख्याओं में अर्थत: एकरूपता है, किन्तु बोध की दृष्टि से नवीनता परिलक्षित होती है। जिज्ञासु वर्ग के लिए वह स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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