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अनुभूति की रश्मियां
जैन संस्कृति का मूल तत्त्व तप है, जैन साधना का प्राण तत्त्व तप है, जैन वाङ्मय का मुख्य सत्त्व तप है। जिस तरह पुष्प की कली-कली में सुगन्ध समायी हुई है, ईख के पौर-पौर में माधुर्य सन्निविष्ट है, तिल के कण-कण में द्रवता संचरित है, उसी प्रकार जैन धर्म के प्रत्येक चिन्तन में तप परिव्याप्त है।
निश्चयतः तप एक आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत है। इसलिए तपश्चरण के द्वारा अधोवाहिनी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामिनी किया जा सकता है। तीर्थंकर पुरुषों एवं पूर्वाचार्यों ने तप की साधना से जो कुछ उपार्जित किया, वही वीतराग दर्शन की कोटि में गिना जाता है। इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि वीतरागता प्राप्ति का अद्भुत साधन तप ही है। जैन परम्परा द्वारा आचरित एवं सम्मानित तप का दायरा इतना विस्तृत और व्यापक है कि उसमें एक सुव्यवस्थित जीवन से लेकर मोक्ष प्राप्ति के सभी साधनों का समावेश हो जाता है।
तप जीवन की ऊर्जा है, सृष्टि का मूल चक्र है, आत्मा का निजी गुण है, साधना की यथार्थ पूर्णता है, आरोग्यता की औषधि है, सद्भावनाओं का दीपक है, श्रेष्ठ विचारों की ज्योति है, सम्यक आचरण की मिशाल है। संक्षेप में कहें तो तप ही जीवन है। तप के बिना जीवन का अस्तित्व ही कुछ नहीं रहता । तप साधना के द्वारा मनुष्य जीवन जीने से लेकर मोक्ष सुख के सभी आयामों को प्रत्यक्षगत कर सकता है।
बाह्य दृष्टि से देखें तो तप का सीधा प्रभाव शरीर पर पड़ता है। तप से देह कृश, निर्बल एवं कमजोर दिखती है। आधुनिक युवा पीढ़ी कहती भी है कि पाप कर्मों को विनष्ट करने हेतु शरीर को कष्ट देना कहाँ की समझदारी है ? इस तरह काया को कष्ट देने से धर्म कैसे हो सकता है ? एक युवक किसी संन्यासी महात्मा के चरणों में पहुँचा । सन्त को प्रणाम कर उसने प्रश्न किया - हे भगवन्! आत्म सुख को पाने के लिए शरीर