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186...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक लिखना चाहिए। यहाँ पर भी जघन्य और मध्यम सिंहनिष्क्रीडित के समान दोदो अंकों की अपेक्षा एक-एक उपवास का अंक घटाना-बढ़ाना चाहिए। इस रीति से लिखे हुए समस्त अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतने पारणे जानने चाहिए। इस तरह इस व्रत में चार सौ छियानवे उपवास और इकसठ पारणे होते हैं। यह व्रत पाँच सौ सत्तावन दिन में पूर्ण होता है।
संक्षेप में जघन्य सिंहनिष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर पाँच तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें और उसके बाद उलटे क्रम से पाँच से एक तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें। दोनों ओर के सब अंकों का जोड़ कर देने पर साठ उपवास और बीस पारणे होते हैं।
मध्यम सिंहनिष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर आठ तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें और उनके ऊपर शिखर स्थान पर नौ का अंक लिखे फिर उल्टे क्रम से एक तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें। सब अंकों का जोड़ करने पर एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणे आते हैं।
उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित व्रत में एक से लेकर पन्द्रह तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखें और उसके ऊपर शिखर स्थान पर सोलह का अंक लिखें। फिर उल्टे क्रम से एक तक के अंक दो-दो की संख्या में लिखे सब अंकों का जोड़ करने पर चार सौ छियानवे उपवास और इकसठ पारणे होते हैं।
सिंहनिष्क्रीडित व्रत में कल्पना यह है कि जिस प्रकार सिंह किसी पर्वत पर क्रम-क्रम से चढ़ता हुआ उसके शिखर पर पहुँचता है और बाद में क्रम-क्रम से नीचे उतरता है उसी प्रकार मुनिराज क्रम-क्रम से उपवास करते हुए तप रूपी पर्वत के शिखर पर चढ़ते हैं और उसके बाद क्रम-क्रम से नीचे उतरते हैं। इस व्रत के फलस्वरूप मनुष्य वज्रऋषभनाराच संहनन का धारक, अनन्त वीर्य से सम्पन्न, सिंह के समान निर्भय और अणिमा आदि गुणों से युक्त होता हुआ शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है।
* 16. नन्दीश्वर व्रत - नन्दीश्वर द्वीप की एक-एक दिशा में चार-चार दधिमुख हैं इसलिए प्रत्येक दधिमुख को लक्ष्यकर मन की मलिनता दूर करते हुए चार उपवास करना चाहिए। एक-एक दिशा में आठ-आठ रतिकर हैं इसलिए प्रत्येक रतिकर को लक्ष्य कर आठ उपवास करना चाहिए। एक-एक दिशा में एक-एक अंजनगिरि है इसलिए उसे लक्ष्य कर एक बेला करना चाहिए।