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जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...173 युगपद् है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि जिनप्रभसूरि ने किन तपों को जिनेश्वर प्रणीत और किन तपों को गीतार्थ भाषित माना है जबकि आचारदिनकर में यह विभाजन सुन्दर ढंग से किया गया है।
यहाँ यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि आचार्य वर्धमानसूरि ने इन्द्रियजय, कषायजय, योगशुद्धि, धर्मचक्र आदि किञ्चित तपों को तीर्थङ्कर भाषित कहा है तो उनका उल्लेख आगम-साहित्य के पृष्ठों पर अवश्य होना चाहिए जबकि उन तपों के नाम से वहाँ कोई चर्चा दृष्टिगत नहीं होती, तो यह विरोधाभास कैसे? - इसका समाधान यह है कि तीर्थङ्करों ने जिन तपों का प्रयोग किया, वह सब आगम पृष्ठों पर तप संज्ञा के रूप में उल्लिखित हो यह आवश्यक नहीं, क्योंकि जैसे भगवान महावीर ने साधनाकाल के दरम्यान एकमासी तप, द्विमासी तप, ढाईमासी तप, चातुर्मासिक तप आदि अनेक तपस्याएँ की। उनका वर्णन प्रभु के जीवन चरित्र (कल्पसूत्र टीका) में अवश्य आता है, परन्तु उसके अतिरिक्त किन्हीं आगम या परवर्ती साहित्य में वह चर्चा तप-विधि के रूप में प्राप्त नहीं होती है। इसी भाँति इन्द्रियजय आदि तपों के विषय में समझना चाहिए।
दूसरा तथ्य यह है कि कालक्रम से तप संख्या में जो अभिवृद्धि हुई उसके पीछे मुख्य कारण यह माना जा सकता है कि द्रव्य, क्षेत्र और काल के अनुसार जब साधक कठिन या दीर्घ तप करने से विमुख होने लगे तो उन्हें तप-साधना में जुटाये रखने के उद्देश्य से गीतार्थों ने छोटे-छोटे तपों की स्थापना की। उनमें भी मनोबल एवं देहबल को ध्यान में रखते हुए कुछ सामान्य तो कुछ विशिष्ट तपों का निरूपण किया, ताकि हर वर्ग के साधक इस साधना से जुड़ सकें। अति साधारण प्राणियों के लिए सांसारिक फल देने वाले तपों का भी निर्देश किया गया जिन्हें प्रारम्भ में भले ही किसी तरह की कामना पूर्ति हेतु अपनाया जाए, परन्तु धीरे-धीरे साधक उनसे ऊपर उठ जाता है।
__ आचार्य हरिभद्रसूरि ने पञ्चाशकप्रकरण में इस विषय का अच्छा स्पष्टीकरण किया है। हम इस विषयक खुलासा आगे करेंगे। यहाँ इतना ही ज्ञातव्य है कि देश-काल की स्थितियों एवं साधक की मनोवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए नयेनये तपों की प्रतिस्थापना के द्वारा तप संख्या में बढ़ोत्तरी होती गयी, प्रत्युत शास्त्रीय सम्बद्ध दुःसह तपों की मूल्यवत्ता को सुरक्षित रखने हेतु उनका विवेचन भी यथावत दर्शाया जाता रहा है।