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154... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
कष्ट सहिष्णु साधक ही अध्यात्म की उँचाइयों को छू सकता है। आत्म साधना के पथ पर किसी न किसी तरह दैहिक कष्ट सहना ही होता है जब साधक देह कष्ट से ऊपर उठ जाता है, सचमुच में साधना तभी फलती एवं पूर्णता को प्राप्त होती है। इस प्रकार तपश्चर्या व्यावहारिक पक्ष को सन्तुलित व समन्वित रखती हुई ही अध्यात्म विकास में सहयोगी बनती है ।
जहाँ तक तपश्चर्या के पीछे लोकोत्तर फल की कामना का प्रश्न है वहाँ मानना होगा कि आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक यन्त्रणा अपने आप में कोई तप नहीं है। उसमें भी यदि इस शारीरिक यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ है तो फिर उसे तपस्या कहना महान् मूर्खता होगी | 86
वर्तमान युग की दृष्टि से अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, इसे आज गाँधी युग का हर व्यक्ति जानता है। तपस्या करने वाले तो उसका प्रत्यक्ष प्रयोग देख चुके हैं। सर्वोदय समाज रचना तो उपवास के मूल्य को स्वीकार करती ही है; किन्तु देश में उत्पन्न अन्न संकट की समस्या ने भी इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है।
आधुनिक चिकित्सक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को सिद्ध कर चुके हैं। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का तो मूल आधार ही उपवास है। ऊनोदरी या भूख से कम भोजन करना, रस परित्याग करना भी स्वास्थ्य की दृष्टि से मूल्यवान है। इससे संयम में अभिवृद्धि एवं इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। गांधी जी ने इसी मूल्य को ध्यान में रखकर ग्यारह व्रतों में आस्वाद व्रत का विधान किया था। यद्यपि वर्तमान युग भिक्षावृत्ति को उचित नहीं मानता है तथापि समाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है।
जैन आचार-व्यवस्था में भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित हैं, वे अपने आप में इतने सबल हैं कि भिक्षावृत्ति के सम्भावित दोषों का निराकरण स्वतः हो जाता है। भिक्षावृत्ति के लिए अहं का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि से उसका कम मूल्य नहीं है ।
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विविध पहलुओं की दृष्टि से तप के आभ्यन्तर भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग का साधनात्मक दृष्टि से बहुत बड़ा मूल्य है। उन्हीं भेदों में स्वाध्याय, वैयावृत्य (सेवा) एवं विनय का तो सामाजिक एवं वैयक्तिक दोनों दृष्टियों से महत्त्व है। सेवाभाव और अनुशासित जीवन (विनय गुण) ये दोनों सभ्य समाज