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132... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
उपर्युक्त वचन में 'कर्म' शब्द से क्रियाकाण्ड का सूचन है। इस प्रकार दोनों कर्म शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ के द्योतक हैं।
भगवद्गीता में 'कर्म' शब्द के प्रयोग का आशय यह है कि जिसे सर्व संशय को छेद करने वाला श्रेष्ठ ज्ञान उत्पन्न हो जाता है उसके लिए विधिविधान या क्रियाकाण्ड की आवश्यकता नहीं रहती ।
पुराणों में कहा गया है कि तपस्वी, दानपरायण, वीतरागी व तिक्षिक (परीषह सहिष्णु) साधक मृत्यु के पश्चात तीन लोक के ऊपर शोक वर्जित स्थान को प्राप्त करता है। जैन परिभाषा में इस स्थान को सिद्धशिला कहा जाता है। इसका मतलब है कि जिस आत्मा ने सर्व कर्मों को नष्ट कर दिया है वह सिद्धशिला में विराजमान होती है।
अधिक क्या कहें? तारा, तृण या रेती के कण से भी अधिक मुनि-साधकों ने तप का आश्रय ग्रहण किया है और आज भी हजारों की संख्या में तप का सेवन किया जा रहा है। इस तथ्य का मुख्य कारण यही है कि तप में सर्व पापों को नष्ट करने की शक्ति विद्यमान है । यदि तप में उक्त प्रकार का सामर्थ्य न हो तो सन्त, साधक, ऋषि, महर्षि, तपस्वी, तीर्थङ्कर जैसे नामों की व्यवस्था ही नहीं रह पायेगी। अतः शान्तचित्त से तप के विषय में चिन्तन करना चाहिए । श्रुति स्मृतियों में भी कहा गया है कि “ तपसा किल्विषं हन्ति'- तप से पापों का नाश होता है।
संक्षेपतः तप की पापनाशक - कर्मनाशक शक्ति में सन्देह नहीं करना चाहिए, प्रत्युत आत्म विकास हेतु तप कर्म का आश्रय लेते रहना चाहिए।
इन्द्रिय नियन्त्रण की दृष्टि से- शास्त्र वचन है 'इच्छानिरोधस्तप:' अर्थात (इन्द्रियों और मन की ) इच्छाओं का निरोध करना ही तप है। जीवन में तप और इन्द्रिय निग्रह का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । इन्द्रिय निग्रह के लिए तप और तप के लिए इन्द्रिय निग्रह आवश्यक है।
बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप से इन्द्रियाँ सधती हैं। अनशन में सर्वथा आहार का त्याग होता है। आवश्यकता से एक ग्रास भी कम खाना, एक घूंट भी कम पीना ऊनोदरी तप है। भिक्षाचरी में भिक्षावृत्ति द्वारा विधिवत आहार प्राप्त करते हैं | रस परित्याग नाम के तप से रसनेन्द्रिय पर विजय पाई जा सकती है। कई बार अनेक पदार्थ भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती, अत: उस जिह्वा को