________________
122...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक बहुत अधिक शक्ति सम्पन्न देवी-देवता भी तीर्थङ्करों के चरण-युगलों में मस्तक टिकाये हर पल सेवारत रहते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने वीतरागस्तोत्र में कहा है कि तीर्थङ्कर पुरुष एक करोड़ देवता से सदैव परिवृत्त रहते हैं अर्थात उनकी सेवा में एक करोड़ देव हमेशा विद्यमान रहते हैं।38 णमुत्थुणं (शक्रस्तव) में तीर्थङ्करों को 'लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं' - लोक में उत्तम, लोक के नाथ आदि विशेषणों से सम्बोधित कर उनकी स्तुति की गयी है। पूर्व पुरुषों के निर्देशानुसार कहा जाता है कि संसार में उनके जैसा अन्य कोई जीव पुण्यशाली नहीं होता। वे अनन्तबल, अनन्तसुख और अनन्तसम्पदा के स्वामी होते हैं।
हाँ, तो यहाँ तीर्थङ्कर पद की चर्चा करने का भाव यह है कि यह संसार की उत्कृष्ट पदवी तप साधना से प्राप्त होती है। ज्ञाताधर्मकथासूत्र में तीर्थङ्कर गौत्र बांधने के बीस उपाय बतलाये गये हैं। उनमें सेवा, स्वाध्याय, तपश्चर्या, गुरुभक्ति, ज्ञानाराधना आदि का अन्तर्भाव होता है।39 ये उपाय बारह प्रकार के तप में गिने जाते हैं। जब साधक निर्दिष्ट उपायों को उत्कृष्ट रूप से वहन कर भाव विशुद्धि को प्राप्त करता है तभी वह तीर्थङ्कर गौत्र कर्म का उपार्जन करता है। यह अनुभूत सत्य है कि बिना साधना के सिद्धि नहीं मिलती। जैन धर्म में साधना का एक अर्थ तप है।
तीर्थङ्करों के बाद भावितात्मा अणगारधर्मी यानी मुनि धर्म का पद श्रेष्ठ माना गया है। यह साधु का पद भी तप साधना के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। “साधु होवै सो साधै काया" जो शरीर को, मन को साधता है, तपाता है, वही साधु होता है। पूर्व में श्रमण की व्याख्या में भी बताया गया है कि जो श्रम करता है, तप करता है वही श्रमण, वही तपस्वी होता है।
सारांश यह है कि तीर्थङ्कर और मुनि जैसे दुर्लभ पद भी तपोयोग से सहज हासिल होते हैं। ___ग्रन्थों की दृष्टि से- जैन परम्परा के कई ग्रन्थों में तप महत्ता के स्वर गुंजायमान है। उपाध्याय यशोविजय जी रचित 'ज्ञानसार' का 31वाँ अष्टक तप सम्बन्धित है। इस अष्टक के प्रारम्भ में बाह्य और आभ्यन्तर द्विविध तपों को इष्ट माना गया है। अन्तरंग तप तो इष्ट होता ही है किन्तु उसे वृद्धिगत करने वाला होने से बाह्य तप भी इष्ट रूप से आचरणीय है। इसमें तपस्वी कौन? तप साधना का अधिकारी कौन? तप साधना के आवश्यक नियम आदि विषयों पर सम्यक्