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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 117 श्रमण एवं वैदिक संस्कृति की प्रायः सभी परम्पराओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणायामों का उल्लेख है जो शरीर स्थित विभिन्न प्रकार की वायु को नियन्त्रित कर मन चञ्चलता को दूर करते हैं। मन की चञ्चल वृत्तियों को शान्त किये बिना तपोयोग सम्भव नहीं है। शरीर शास्त्र के अनुसार मन और वायु के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है । प्राणायाम वायु को नियन्त्रित करके सम्पूर्ण देह को नियन्त्रण में रखता है। शरीर नियन्त्रण का अभिप्राय इन्द्रिय नियन्त्रण है। शरीर एवं इन्द्रिय इन दोनों के नियन्त्रण से तपश्चर्या क्षेत्र में समुचित विकास कर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। उक्त वर्णन के आधार पर कह सकते हैं कि तप सिद्धि के लिए प्राणायाम एक आवश्यक साधन है। प्राणायाम से तप: कर्म को दृढ़ बल एवं पुष्ट आधार प्राप्त होता है, तपो साधना में अभिवृद्धि होती है एवं तपश्चर्या का मार्ग निष्कण्टक बनता है। अतः तप काल में प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। तप और ध्यान तपश्चर्या में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ध्यान मन की चंचलताविकलता - विषमता को हटाकर उसे आत्म केन्द्रित करता है जिसका अवसान समाधि माना गया है। स्वरूपतः तप का उत्स भी प्रकारान्तर से समाधि ही माना जाता है, क्योंकि तपस्वी को वैरागी कहा जाता है । वैरागी वही कहलाता है जो वासना रूपी संस्कार को निर्मूल कर देता है। समाधि की पूर्ण अवस्था इसी स्थिति का द्योतक है। महर्षि पतञ्जलि ने उक्त कथन की स्पष्टता में कहा है कि ध्यान के निरन्तर अभ्यास से कुसंस्कारों का अभाव हो जाता है और यह अवस्था निर्बीज समाधि है। 20 बौद्ध परम्परा में चित्त कुशलों को स्थिर करना ही ध्यान माना गया है और इसी ध्यान को निर्वाण प्राप्ति में साधकतम कहा है। जैन परम्परा में चित्त एकाग्रता को ध्यान कहा है तथा उसे संवर और निर्जरा का कारण बतलाया है जो अन्ततः मोक्ष-प्राप्ति का हेतु बनता है । 21 तपश्चर्या और ध्यानाभ्यास में मुख्यतः भेद नहीं है । भारतीय चिन्तकों ने ध्यान के पर्याय के रूप में तप, समाधि, स्वान्तनिग्रह, अन्तःसंलीनता, समरसी भाव जैसे- शब्दों का प्रयोग किया है। इस सम्बन्ध में मूल पाठ निम्नोक्त है - योगो ध्यानं समाधिश्च, घी- रोधः स्वान्तनिग्रहः, अन्तःसंलीनता चेति, तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः 1 22
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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