SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक तप एवं आचार ऐसे चार समाधि का वर्णन किया गया है उनमें श्रुत समाधि का स्थान द्वितीय है। इसका तात्पर्य यह है कि श्रुत समाधि होने पर ही तप और आचार समाधि हो सकती है और बिना स्वाध्याय के श्रुत समाधि नहीं हो सकती।147 स्थानांगसूत्र में स्वाध्याय का माहात्म्य दर्शाते हुए निर्दिष्ट किया है कि 1. स्वाध्याय से श्रुत का संग्रह होता है 2. शिष्य श्रुतज्ञान से उपकृत होता है 3. ज्ञान के प्रतिबन्धित कर्म निर्जरित होते हैं 4. अभ्यस्त श्रुत विशेष रूप से स्थिर होता है। 148 आचार्य अकलंक ने पूर्व सन्दर्भों का समर्थन करते हुए कहा है कि 1. स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है 2. प्रशस्त अध्यवसाय की प्राप्ति होती है 3. संशय का उन्मूलन होता है 4. परवादियों की शंकाओं के निरसन की शक्ति प्राप्त होती है 5. तप-त्याग की वृद्धि होती है और 6. अतिचारों की शुद्धि होती है। 149 वैदिक ग्रन्थों में भी स्वाध्याय को तप की कोटि में रखते हुए कहा गया है कि “ तपोहि स्वाध्यायः । "150 वहाँ “स्वाध्यायान् मा प्रमदः " ऐसा उपदेश वचन भी कहा गया है इसलिए स्वाध्याय में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। 151 जैसे दीवार की बारबार घुटाई करने से वह चिकनी हो जाती है फिर उसके सामने जो भी प्रतिबिम्ब आता है वह उसमें झलकने लगता है वैसे ही स्वाध्याय से मन इतना निर्मल एवं पारदर्शी बन जाता है कि शास्त्रों का रहस्य उसमें प्रतिबिम्बित होने लग जाता है। आचार्य पतञ्जलि ने तो इतना तक कहा है कि “स्वाध्यायादिष्ट देवता संप्रयोगः " स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात्कार होता है। 152 यहाँ स्वाध्याय को जप के रूप में लिया गया है। यदि स्वाध्याय के सम्यक् परिणामों के विषय में चिन्तन करते हैं तो परिज्ञात होता है कि स्वाध्याय से सद्विचारों का आविर्भाव होता है, सतसंस्कार जागृत होते हैं, प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि होती है, पूर्वाचार्यों का अनुभवजन्य ज्ञान सहज रूप से आत्मसात होता है, आत्मिक योग्यता विकसित होती है, जैसे अग्नि से स्वर्ण की मलिनता दूर होती है वैसे ही स्वाध्याय से मन का मालिन्य दूर होता है, सम्यग्दर्शन की शुद्धि और चारित्र की संवृद्धि होती है।
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy