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70...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक प्रशंसा और बहुमान के द्वारा सहगति का सर्जन करता है। साथ ही विनयमूलक सब प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और दूसरे अनेक व्यक्तियों को विनय पथ पर अग्रसर करता है।130
ओघनियुक्तिकार ने कहा है कि जो मुनि आहार, औषधि, उपधि आदि के द्वारा साधुओं की वैयावृत्य करता है, वह लाभांतराय कर्म को क्षीण करता है। वह पाद प्रक्षालन, मर्दन आदि सेवा-कार्यों से साधुओं की चित्तसमाधि में योगभूत बनता है तथा स्वयं सर्व समाधि को प्राप्त करता है।131
जैन परम्परा में ग्लान सेवा पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। प्रसंग आता है कि एक बार गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा कि एक साधक रात-दिन आपके चरणों में उपस्थित है और दूसरा साधक रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि की सेवा करता है तो इन दोनों में श्रेष्ठ कौन? तब प्रभु ने कहा132_
जो गिलाणं पडियरइ, सो मं पडिअरति ।
जो मं पडिअरति, सो गिलाणं पडियरति ।। जो ग्लान की सेवा करता है वही वास्तव में श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मेरी सेवा करता है। जो मेरी सेवा करता है वह ग्लान की सेवा करता है। यहाँ सेवा का तात्पर्य आज्ञा से है। यह सुनकर गौतमस्वामी को परम आश्चर्य हआ। वे सोचने लगे - कहाँ एक ओर विश्ववन्द्य अरिहन्त परमात्मा की सेवा भक्ति और कहाँ दूसरी ओर एक रुग्ण साधु की परिचर्या? दोनों में महान् अन्तर होने पर भी भगवान् अपनी सेवा भक्ति से भी बढ़कर रोगी की सेवा को महत्त्व दे रहे हैं इसका कारण क्या ? गौतम स्वामी ने पुन: पूछा तो प्रभु ने जवाब दिया - गौतम! शरीर की सेवा का कोई मूल्य नहीं होता, मूल्य होता है आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने का। शास्त्र वचन है “आणाराहणं खु जिणाणं' जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का पालन करना। यही सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ी सेवा है।
- संक्षेप में सेवा का अप्रतिपाति लाभ है। इसलिए उत्तम गुणों से युक्त साधुओं की वैयावृत्य अवश्य करनी चाहिए। 4. स्वाध्याय तप
__ श्रुत ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन करना स्वाध्याय कहलाता है। जैन टीकाकारों ने स्वाध्याय शब्द के भिन्न-भिन्न निरूक्त अर्थ किये हैं।
स्थानांगटीका में स्वाध्याय की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि