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________________ तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...67 लिए यह कार्य सहज सम्भव नहीं है क्योंकि इस तप-साधना में मन, वचन और काया तीनों को जुटाना होता है। इसका समाधान करते हुए भाष्यकारों ने कहा है कि जो व्यक्ति आलसी, बहुभोजी, निद्रालु, तपस्वी, क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी, कुतूहलप्रिय और सूत्र-अर्थ में प्रतिबद्ध हो उसे सेवा कार्य में नियोजित नहीं करना चाहिए; किन्तु जो उपर्युक्त दोषों से मुक्त है, गीतार्थ है, शील और आचार का ज्ञाता है, गुरुभक्त है, बाह्य उपचार को जानता है, वह वैयावृत्य करने का अधिकारी है।124 इस वर्णन से सिद्ध होता है कि यह एक दुष्कर तप है। इस तप की आराधना अप्रमत्त साधक ही कर सकता है। प्रकार- यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि दुनियाँ में तो अनन्त प्राणी हैं, किन्तु तपाराधना की दृष्टि से किनकी सेवा-शुश्रुषा करनी चाहिए, जिससे शाश्वत फल की प्राप्ति की जा सके? जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए वैयावृत्य के योग्य दस प्रकार बतलाये हैं। सामान्यतया प्राणिमात्र की सेवा करना, प्रत्येक जीव को समाधि पहुंचाना जैन धर्म का लक्ष्य है, किन्तु यह विशाल लक्ष्य तभी सफल हो सकता है, जब पहले हम अपने निकटतम व्यक्तियों के प्रति सेवा भाव को क्रियान्वित करें। परिवार या पड़ोसी को कष्टदायक स्थिति में छोड़कर विश्व सेवा की बात करना, एक प्रकार से सेवा की विडम्बना है। इसलिए जैन धर्म का आदर्श है कि सेवा का प्रारम्भ अपने जीवन के निकटतम सहयोगियों, अपने उपकारियों एवं साधर्मीजनों से करनी चाहिए। इस दृष्टि से सेवा के दस स्थान कहे गये हैं, जो निम्न हैं - ___1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. स्थविर 4. तपस्वी 5. रोगी 6. नवीन दीक्षित मुनि 7. कुल (एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय) 8. गण (एक से अधिक आचार्यों के शिष्यों का समुदाय) 9. संघ (कई गणों का समूह) 10. साधर्मिक (समान धर्म वाले मुनि या गृहस्थ)।125 इन दस को आवश्यकता होने पर आहार आदि करवाना, शयनपट्ट की व्यवस्था करना, आसन देना, उनके उपधि की प्रतिलेखना करना, उनके पाँव पोंछना, रुग्ण होने पर निर्दोष औषधि का प्रबन्ध करना, अत्यन्त वृद्ध या असमर्थ को चलने, बैठने व उठाने में सहारा देना, अग्लान भाव से मल-मूत्रादि साफ करना। इस तरह जिसे जिस प्रकार के सेवा
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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