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60...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक साधु के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का विधान है। वर्तमान में अधिक से अधिक आठवें प्रायश्चित्त तक देने की विधि है।
महत्त्व - भगवान महावीर ने बताया है कि प्रायश्चित्त करने से जीव पाप कर्म की विशुद्धि करता है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग (सम्यक्त्व) और मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चारित्र) और चारित्रफल (मुक्ति) की आराधना करता है।92 ___अन्य दृष्टि से वह भावुक और विनम्र बनता है, हृदय में कोमलता के अंकुर फूट पड़ते हैं, वह इहलोक एवं परलोक के विषय में बहुत ही विवेकशील रहता है, नये पापकर्मों के आस्रव निरोध का प्रयास प्रारम्भ हो जाता है इत्यादि कई प्रकार के अच्छे परिणाम जीवन में रूपान्तरित होते हैं। ___ आलोचना कौन कर सकता है, प्रायश्चित्त करने योग्य गुरु कैसे होते हैं, प्रायश्चित्त किसके पास किया जाना चाहिए, प्रायश्चित्त कब करना चाहिए, प्रायश्चित्त योग्य दोष कौनसे हैं? इत्यादि के सम्बन्ध में शास्त्रों में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। प्रायश्चित्त-विधि खण्ड-10 में उक्त सन्दर्भो पर पर्याप्त प्रकाश डाला जायेगा। ___ सुस्पष्ट है कि दोष छोटा हो या बड़ा, प्रायश्चित्त से आत्मा दोषमुक्त बन जाती है, क्योंकि आत्मा मूलत: दोषी नहीं है, दोष तो प्रमाद एवं कषाय भाव है। कषाय आदि की उत्पत्ति होती है तो उनकी शुद्धि भी हो सकती है। प्रायश्चित्त तप इसी बात को सिद्ध करता है कि प्रत्येक आत्मा अपने दोषों का प्रक्षालन कर सकती है। इसके लिए कहीं जाने की बजाय हृदय को मांजने की ही जरूरत है। 2. विनय तप ___ आभ्यन्तर तप का दूसरा भेद विनय है। शास्त्रों में कहा गया है कि 'विणय धम्मो मूलो' विनय धर्म का मूल है। जैन आगम साहित्य में 'विनय' शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। वहाँ 'विनय' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है -
1. आत्मसंयम 2. अनुशासन 3. नम्रता।
स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र आदि में प्रशस्त मन विनय आदि के भेद बताये गये हैं उनका सम्बन्ध उच्च विचारों एवं मनःसंयम से है जैसा कि मूल पाठ है - "अप्पा चेव दमेयव्वो 3 ......" "वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य।'94