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योग तप (आगम अध्ययन) की शास्त्रीय विधि... 377
उपसंहार
जो आत्मा को विशेष रूप से जोड़े उसे योग कहते हैं। योग शुभाशुभ प्रकार का होता है। मन-वचन काया की शुभप्रवृत्ति शुभयोग है और मन-वचनकाया की अशुभ प्रवृत्ति अशुभयोग है। योगोद्वहन के माध्यम से शुभयोग का अभ्यास होता है। योगशास्त्र के अनुसार शुभयोग से समत्व धर्म की प्राप्ति होती है, समत्व से ध्यान का प्रारम्भ होता है, ध्यान से आत्मज्ञान होता है, आत्मज्ञान से कर्मक्षय होते हैं और कर्म क्षय से मोक्ष प्राप्त होता है | 29
योगोद्वहन आगम रूपी विद्या को सिद्ध करने का अमोघ साधन है। जिस प्रकार लौकिक विद्याओं को सिद्ध करने के लिए भी तप-जप- ध्यान आदि करना आवश्यक होता है अन्यथा सिद्धि नहीं प्राप्त होती । उसी प्रकार आत्मा का अनन्त गुणा उपकारक आगम रूप विशिष्ट विद्या की सिद्धि हेतु योग / उपधान करना परमावश्यक है।
यह विशेषरूप से मननीय है कि योगोद्वहन की क्रिया करने मात्र से सूत्र पढ़ने-पढ़ाने की योग्यता प्रकट नहीं होती अपितु योग क्रिया के साथ आगम का बहुमान, गुरु का विनय, आगम उपदेष्टा तीर्थंकर पुरुषों के प्रति विश्वास, आगम रचयिता गणधर मुनियों के प्रति अटल श्रद्धा होना भी जरूरी है। दूसरे, दीक्षा दिन में एक विशिष्ट विधि करते हैं। कदाच उससे सर्वविरति के परिणाम उत्पन्न न भी हो तो भी सामायिक आदि के परिणाम तो प्रगट होते ही हैं। उसी प्रकार योग क्रिया करने से उस समय आगमानुसारी न भी बन पाएं तो भी आगम को आत्मोपकारक बनाने में परम निमित्तभूत श्रद्धा, विनय, बहुमान आदि गुण अवश्यमेव प्रकट होते हैं। इसलिए योगोद्वहन करना ही चाहिए।
जिन शासन में पंचाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पंचाचार में प्रथम ज्ञानाचार आठ प्रकार का है। उसका चौथा प्रकार उपधान (योग) वहन है और वह मुनि एवं गृहस्थ दोनों के लिए उत्सर्गतः आचरणीय है। इस आचार का पालन करने से ज्ञानावरणीय कर्म विनष्ट होते हैं और आत्मा में ज्ञान दीप का प्रज्वलन होता है। योगोद्वहन के द्वारा आत्मा में प्रगट हुआ ज्ञान ही भावश्रुत है । इसके सिवाय सभी तरह का पढ़ा हुआ, जाना हुआ या सुना हुआ ज्ञान द्रव्यश्रुत है। द्रव्यश्रुत आत्मा का उपकारक नहीं होता है, अतएव भावश्रुत (केवलज्ञान) को प्रगट करने के लिए काल, विनय, बहुमान आदि आठ प्रकार के आचारों की आराधना निश्चित रूप से करनी चाहिए। योगोद्वहन में आठ आचारों का सम्यकतया आचरण किया जाता है।