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________________ वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप... 33 असत आचरण करके लोगों के हृदय में जिनवचन के प्रति शंका उत्पन्न करने का निमित्त बनता है । 4. विराधना दोष - जिनाज्ञा भंग करने वाला साधु संयम विराधना और आत्म विराधना करता है। इससे अशुभ कर्म का बन्ध भी होता है । पंचवस्तुक में विधिपूर्वक सूत्र पढ़ाने के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार लोक में अविधि से साधित मन्त्र, विद्या आदि सिद्ध नहीं होते उसी प्रकार अविधिपूर्वक प्रदान किया गया सूत्र ज्ञान भी फल प्रदाता नहीं होता है अपितु अशुभ फल देता है अतः विधिपूर्वक सूत्र प्रदान करना चाहिए। इससे जिनाज्ञा की आराधना एवं शुद्ध मार्ग की परम्परा अखण्ड रूप से चलती है। 54 जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने इस बात पर बल दिया है कि योग्य गुरु को उपयोग और शुद्ध भावपूर्वक सूत्र प्रदान करना चाहिए क्योंकि प्रायः शुभ क्रिया से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। लोक में भी यह तथ्य मान्य है कि शुभ भाव से भावित वक्ता के वचनों को सुनकर शुभ भाव पैदा होते हैं। यदि गुरु विशुद्ध भाव से सूत्र प्रदान नहीं करते हैं, तो इसमें शिष्य को किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता है अपितु परिणाम विशुद्धि के कारण लाभ ही होता है। शुभ का आलम्बन होने से आत्मा के परिणाम भी उत्तम बनते हैं 155 वाचना में महत्त्वपूर्ण सामग्री जैनाचार्य वर्धमानसूरि ने वाचना काल में अपेक्षित सामग्री एवं सहयोगी मुनि का निरूपण करते हुए कहा है कि वाचना ग्रहण करते समय योगवाहियों के सहायक मुनि (दण्डधर एवं कालग्राही) होने चाहिए। वाचना हेतु उपयुक्त काल होना चाहिए। प्रचुर मात्रा में ज्ञान भण्डार, आहार- पानी की सुलभता, विघ्न रहित क्षेत्र, लेखनी, दवात ( स्याही पात्र), शुभ शय्या एवं योग्य आसन होना चाहिए। इन सामग्रियों के सद्भाव में वाचना देने - लेने का कार्य निर्विघ्नतया सफल होता है। 56 वाचना विधि का ऐतिहासिक परिशीलन जैन मुनियों के लिए अध्ययन (वाचना-ग्रहण) परम आवश्यक है। यह स्वाध्याय का पहला चरण है। मोक्ष प्राप्ति का हेतुभूत अनुष्ठान है। इस सत्क्रिया के माध्यम से शिष्य की ज्ञान सम्पदा को समुन्नत एवं चारित्र धर्म को परिपुष्ट
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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