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________________ ...255 प्रवर्त्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप... को लेकर लगभग समानता है। केवल देववन्दन की क्रिया में सामाचारी भेद है । यदि पूर्वनिर्दिष्ट परम्पराओं की अपेक्षा इस पद विधि की तुलना की जाए तो कह सकते हैं कि जैन धर्म के मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की लगभग सभी परम्पराओं में यह पद प्रवर्तित है। श्वेताम्बर परम्परावर्ती स्थानकवासी, तेरापंथी परम्पराओं में इस पद का प्रचलन तो है किन्तु उस दिन चादर ओढायी जाती है। दिगम्बर परम्परा में यह पद व्यवस्था नहीं है, वहाँ आर्यिकाओं में महत्तरातुल्य गणिनी पद का प्रवर्त्तन है। वैदिक परम्परा में भी इस प्रकार के पद का अभाव है, क्योंकि उनमें भिक्षुणी संघ की कोई व्यवस्था ही नहीं है । बौद्ध परम्परा में प्रवर्त्तिनी पद का स्पष्ट वर्णन है। यहाँ प्रवर्तिनी को उपाध्यायिनी या उपाध्याया कहा गया है। पात्तिमोक्ख आदि बौद्ध - साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इस संघ में प्रवर्त्तिनी की निश्रा भिक्षुणियों के लिए आवश्यक मानी गयी है। श्रामणेरी एवं शैक्षमाणा प्रवर्त्तिनी की नैश्राय में ही नियमों का शिक्षण लेती है। बारह वर्ष की उपसम्पन्न भिक्षुणी प्रवर्त्तिनी बन सकती है तथा संघ की अनुमति से वह शिक्षमाणा को उपसम्पदा प्रदान कर सकती है। उपसम्पदा प्रदान करने के पश्चात प्रवर्त्तिनी को पांच या छः योजन तक उसके साथ यात्रा करने का विधान है, अन्यथा उसको पाचित्तिय का दण्ड लगता है | 36 इस तरह हम देखते हैं कि जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रस्तुत पद का महनीय स्थान रहा हुआ है। दोनों संघों में प्रवर्त्तिनी का मुख्य कर्त्तव्य निश्रावर्ती शिष्याओं को चारित्र सम्बन्धी विशिष्ट नियमों का ज्ञान प्राप्त करवाना एवं उनका सम्यक प्रवर्त्तन करना है। उपसंहार प्रवर्त्तिनी, जैन संघ की साध्वी परम्परा का सर्वोच्च पद है। इस पद का उद्देश्य श्रमणी-संघ की व्यवस्था को सुगठित बनाये रखना है । प्रवर्त्तिनी का मुख्य कार्य निश्रावर्ती साध्वियों का सम्यक् संचालन और वाचना प्रदान करना है। गरिमा की दृष्टि से इसे आचार्य के तुल्य स्थान दिया गया है, किन्तु वाचना की दृष्टि से इसका स्थान वाचनाचार्य के समकक्ष माना गया है। यद्यपि वाचनाचार्य की अपेक्षा प्रवर्तिनी के दायित्व सीमित होते हैं, परन्तु दोनों का मुख्य कार्य शिष्य एवं शिष्याओं को वाचना देना है।
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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