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प्रवर्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप...253 जये-विजये जयंते अपराजिए अणिहए ओं हीं स्वाहा।"
तदनन्तर इसी श्रेष्ठ लग्न में नूतन प्रवर्तिनी के कन्धे पर कम्बली रखें। फिर उसका नया नामकरण करें।
उसके बाद कनिष्ठ साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाएँ नूतन प्रवर्तिनी को द्वादशावर्त वन्दन करें। नूतन प्रवर्तिनी स्वयं भी ज्येष्ठ मुनिवरों एवं आर्यायों को वन्दन करें। इसी क्रम में गुरु हितशिक्षा दें तथा नूतन प्रवर्तिनी गुरुमुख से आयंबिल का प्रत्याख्यान करें। प्रवर्तिनी के आवश्यक कृत्य
___ सामान्यतया प्रवर्त्तिनी पद पर नियुक्त होने के पश्चात पदारूढ़ साध्वी के उत्तरदायित्व बढ़ जाते हैं। अपने कर्त्तव्यपालन के प्रति वह सजग रहे एतदर्थ आवश्यक कार्यों की अनुज्ञा भी दी जाती है। आचारदिनकर के अनुसार साध्वियों को वाचना देना, धर्म का उपदेश देना, साधुओं की उपधि का संरक्षण करना, साध्वियों के लिए उपधि ग्रहण करना, साधु-साध्वियों को शिक्षा देना, श्रावकश्राविकाओं को तप की अनुज्ञा देना इन सब कृत्यों की आज्ञा दी जाती है। ये उसके मुख्य कर्त्तव्य होते हैं।30 ____यहाँ साधु को शिक्षित करने का अर्थ है प्रवर्तिनी मातृतुल्य या भगिनीतुल्य होती है। गीतार्थ आदि गुणों से भी युक्त होती है अत: कोई मुनि चारित्र पालन में शिथिल हो रहा हो, गुर्वाज्ञा में निरत न हो, शैक्ष हो, बाल हो, चंचलचित्त वाला हो तो उन्हें सत्शिक्षण द्वारा संयम मार्ग में दृढ़ करना प्रवर्तिनी का कर्तव्य है। प्रवर्तिनी के लिए निषिद्ध कृत्य
प्रवर्तिनी के लिए साध्वियों को बड़ी दीक्षा देना, उन्हें वन्दन करना, कम्बल पर बैठना और व्रत की अनुज्ञा देना- इन कार्यों का निषेध है।31
आचार्य जिनप्रभसूरि ने कम्बल परिमाण आसन पर बैठने का निषेध नहीं किया है। उनकी सामाचारी में नूतन प्रवर्तिनी को अभिमन्त्रित आसन दिया जाता है। तुलनात्मक अध्ययन
यदि प्रवर्त्तिनी पदस्थापना विधि का तुलनात्मक अनुसंधान किया जाए तो प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर उसका निष्कर्ष इस प्रकार प्राप्त होता है