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250...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अनुसार इसकी भिन्न-भिन्न विधियाँ हैं। जबकि इस ग्रन्थ में सर्वगच्छों के आचार्यों और उपाध्यायों की सम्मति से इससे पृथक विधि कही जाएगी।28
यदि उत्तरकालवर्ती साहित्य का मनन करते हैं तो वहाँ मौलिक या संकलित किसी ग्रन्थ में इसका स्वरूप नजर नहीं आता है।
इस तरह स्पष्ट होता है कि प्रवर्तिनीपद की व्यवस्था आगम सम्मत होने के उपरान्त भी इसकी पदविधि के स्पष्ट उल्लेख विक्रम की 10वीं शती से परवर्ती ग्रन्थों में परिलक्षित होते हैं और उनमें भी यह विधि मुख्यतया तीन ग्रन्थों में प्राप्त होती है। यद्यपि विधिमार्गप्रपा में इस विधि का विस्तृत वर्णन नहीं है तथापि सांकेतिक विधि सुव्यवस्थित रूप से उपलब्ध है तथा आचारदिनकर की अपेक्षा यह ग्रन्थ प्राचीनतम एवं विशुद्ध सामाचारी से सम्पृक्त भी है अत: विधिमार्गप्रपा के अनुसार यह विधि प्रतिपादित करेंगे। प्रवर्तिनी पदस्थापना विधि
विधिमार्गप्रपा में वर्णित प्रवर्तिनी पदस्थापना विधि निम्नलिखित है29_
वासदान एवं देववन्दन - सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त दिन में समवसरण की स्थापना करें। फिर प्रवर्तिनी योग्य साध्वी बिना सिले हए अखण्ड वस्त्रों को पहनकर गुरु के बायीं ओर अपना आसन बिछाएँ। फिर गुरु को द्वादशावर्त वन्दन करे। उसके बाद नूतन प्रवर्तिनी खमासमणसूत्र द्वारा वन्दन करके कहे - "इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पवत्तिणीपय अणुजाणावणियं वासनिक्खेवं करेह"- हे भगवन्! आपकी इच्छा हो, तो प्रवर्तिनीपद की अनुमति प्रदान करने के लिए मुझ पर वासचूर्ण का निक्षेप करें। गुरु कहते हैं- 'करेमो' - मैं वासचूर्ण का निक्षेप करता हूँ। फिर एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन कर कहे - 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं पवत्तिणीपयअणुजाणावणियं चेइयाई वंदावेह' - हे भगवन्! आपकी इच्छा हो, तो प्रवर्तिनीपद की अनुमति प्रदान करने हेतु मझे चैत्यवन्दन करवाएं। तब गुरु 'वंदावेमो' ऐसा बोलकर उसके मस्तक पर वासचूर्ण का क्षेपण करें। फिर गुरु और शिष्या दोनों जिनमें उच्चारण एवं अक्षर क्रमश: बढ़ते हुए हों, ऐसी चार स्तुतियाँ एवं शान्तिनाथ, क्षेत्रदेवता आदि से सम्बन्धित बारह ऐसे कुल अठारह स्तुतियों द्वारा पूर्ववत देववन्दन करें।
तदनन्तर गुरु और पदग्राही साध्वी दोनों ही प्रवर्त्तिनीपद की अनुमति देने एवं लेने निमित्त अन्नत्थसूत्र बोलकर (सागरवरगम्भीरा तक) एक लोगस्ससूत्र का