________________
आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...203 यह सर्वोत्तम पद गौतम स्वामी सदृश मुनियों के द्वारा धारण किया हुआ, अक्षय सुख (मोक्ष) का कारक और सर्वोत्तम फल का उत्पादक है। इसलिए हे धीर! तुम्हारे द्वारा भी इस पद को निश्छल बुद्धि पूर्वक धारण किया जाना चाहिए। ___ इस पद से श्रेष्ठतर अन्य कोई परमपद नहीं है। कालदोष का प्रभाव होने पर भी अतीत, अनागत एवं वर्तमान के सभी तीर्थङ्करों द्वारा इस पद का प्रकाशन किया गया है, करते हैं और किया जायेगा। इससे इस पद की गरिमा तुम्हें समझ आ सकती है।
तीर्थङ्करों द्वारा कथित आगमरूपी वाणी का व्याख्यान ही महान गुणों को उत्पन्न करने वाला, स्व और पर का उपकार करने वाला और तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन करने वाला है, अतः तुम इसमें अगणित पुरुषार्थ करना।
हे धीर! तुम सदाकाल अप्रमत्त होकर विचरण करना क्योंकि गुरु के उद्यम परायण होने पर शिष्य भी सम्यक प्रकार से उद्यम करते हैं। __जिस प्रकार श्रेष्ठ नदी उद्भव स्थान में संकीर्ण होने पर भी विस्तृत रूप से बहती हुई समुद्र में जा मिलती है उसी प्रकार तुम भी शील आदि गुणों के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो।
जो शिथिलाचार पूर्वक विहार करता है, सुखशीलता में आसक्त है, मूढ़ है, वह संयम सार से रहित केवल वेषधारी है। तुम आचार-व्यवहार में दृढ़ रहना।
हे वीर पुरुष! तुम स्वपक्ष-परपक्ष में विरोध हो, उस प्रकार के कृत्य कभी मत करना तथा असमाधि कारक विवादास्पद प्रसंगों का विष-अग्नि के समान सदैव वर्जन करना।
सिद्धान्त के सारभूत तत्त्व ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों गुणों में जो अपने गण समुदाय को स्थिर रहने की प्रेरणा देता है वह गणधर है। जिस प्रकार मध्य भाग से पकड़ी हुई स्वर्ण तराजू भारी और हल्की वस्तुओं को समान रूप से धारण करती है, जिस प्रकार पुत्र युगल की माता भी समान ही होती है, जिस प्रकार अपने दोनों नेत्रों को बिना किसी भेद-भाव के वहन कर रहे हो उसी प्रकार विचित्र स्वभाव वाले शिष्य समुदाय में भी सभी के प्रति समान दृष्टि रखने वाले होना। ___ जो मोक्ष रूपी फल के आकांक्षी हैं उन्हें उस पद के योग्य बनाना तथा मुनि रूपी पत्तों के संयोग से छायादार वटवृक्ष की भाँति होना।