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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...181 है। व्यवहारसूत्र में आचार्य पद के लिए अनधिकृत शिष्य का निरूपण करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो, क्षत, शबल, भिन्न और संक्लिष्ट आचारवाला हो, अल्पश्रुत
और अल्पआगमज्ञ हो तथा पाँच वर्ष की दीक्षा पर्याय से न्यून हो, उसे आचार्य पद पर आरूढ़ नहीं करना चाहिए।89 ___ आचारदिनकर में पंचाचार से रहित, क्रूर स्वभावी, कटुभाषी, कुरूप, विकलांग, अनार्य देश में उत्पन्न, जाति एवं कुल से हीन, अभिमानी, अनुशासन करने में अदक्ष, विकथी, ईर्ष्यालु, विषय-कषाय में अनुरक्त, द्वेष रखने वाला, कायर, निर्गुण, अपरिपक्व, प्रकृति से दुष्ट आदि दोषों से युक्त भिक्ष को आचार्य पद के अयोग्य कहा गया है।90 ___आगमकारों ने इस सम्बन्ध में यह भी कहा है कि हाथ, पाँव, कान, नाक एवं होठ रहित, वामन, कुब्ज, पंगु, लूला और काणा- ये व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य हैं। दीक्षा लेने के बाद यदि कोई विकलांग हो जाये तो उसे आचार्यपद नहीं दिया जा सकता है। यदि आचार्य विकलांग हो जाए तो उनके स्थान पर योग्य शिष्य को आचार्य पद देकर विकलांग आचार्य को चोरितमहिष की भांति गुप्त स्थान में रखा जाना चाहिए।
निष्कर्ष यह है कि आचार्य पद पर नियुक्त शिष्य सर्वाङ्गी, इन्द्रियों से परिपूर्ण, बलवान, उत्कृष्ट कुलोत्पन्न, प्रशमस्वभावी, सरल, शूरवीर, मृदुभाषी और उत्तम चारित्रवान होना चाहिए। अयोग्य को अनुज्ञा देने से होने वाले दोष
पंचवस्तुक के अभिमतानुसार अयोग्य मुनि को आचार्यपद पर स्थापित करने से निम्न दोष लगते हैं1
1. मृषावाद - जो मुनि संयम पर्याय के अनुरूप सूत्रार्थों का सम्यक अवबोध नहीं कर पाया है उसे अनुयोग (आगम-व्याख्यान) की अनुज्ञा देने पर अनुज्ञादाता गुरु के अनुज्ञावचन व्यर्थ हो जाते हैं। जिस प्रकार एक पिता के द्वारा दरिद्र पुत्र से रत्न मांगने पर, पुत्र के पास रत्न न होने से पिता का दान वचन व्यर्थ हो जाता है, उसी प्रकार सूत्रार्थों के ज्ञान से रहित को अनुयोग की अनुज्ञा देने पर गुरु का अनुज्ञावचन निरर्थक हो जाता है। इससे अतिप्रसंग दोष भी उत्पन्न होता है।